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________________ ३०४ स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा. ३०२ [छाया-यः त्यजति मिष्टभोज्यम् उपकरणं रामदोषसंजनकम् । सति ममत्वहेतु त्यागगुणः स भवेत् तस्य ॥] तस्य मुनेः जगप्रसिद्धः त्यागगुणः दानाख्यो गुणः त्यागधौ वा भवेत् स्यात् । कस्य । यः मुनिः त्यजति परिहरति । 10किम् मिएभोज्यं रसादिकं पृष्परसं कामजनक कम्दोत्पादक सरसाहार स्यजति, तथा रागद्वेषमनकम् उपकरणं त्यजति, रागद्वेषोत्पादकं परिग्रह त्यजति, यत् रागद्वेषोत्पादकक्षेत्रभूमिप्रदेशवसतिकादिधनधान्यद्विपदचतुष्पदादिकं त्यजति। चारित्रसारे, पधित्यागः पुरुषहितो यतो यतः परिप्रद्दात् अपेतः ततस्ततः संयतो भवति । ततोऽस्य खेदो व्यपगतो भवति । परिग्रह परित्याग दृष्टपरलोकपरमसम्बकारणं भवति । निरवद्यमनःप्रणिधानं पुण्यनिधानं भवति । परिग्रहो बलवती सर्वदोषप्रसवयोनिः । परिग्रहसंग्रह एवं दुःखमयादिक जनयतीति रागद्वेषजनकमुपकरण मनोज्ञरागवारिकनकरजतादिनिष्पादितकमण्डलुपसूत्रअडितपिच्छिकापुस्तकजपमालिकाचकलपीठादिकं त्यजति । मुनिवारामुपाश्रयस्थानं ममत्वकारण मोहोत्पादकं त्यजति । तथा तत्वार्थसूत्रे 'संयमिना योग्य ज्ञानसंयमशीन्योपकरणादिदा बाग उन्.यते ॥ ४.१॥ आकिंचन्यधर्म बितनोति ति-विहेण जो विवजादि चेयणमियरं च सव्वहा संग । लोय-यवहारै-विरदो णिग्गंथर्स हवे तस्स ॥४०२॥ छाया-त्रिविधेन यः विवर्जमति चेतनमितरं च सर्वथा संगम् । लोकय्यवहारविरतः निर्ग्रन्थत्वं भवेत् तस्य ।। तस्य मुनेः निप्रन्धत्वं परिग्रहराहित्यम् आकिंचन्य नाम धर्मों भवेत् । तस्य कस्य । यो मुनिः विवर्जयति त्यजति । कम् । संग परिप्रई चेतन शिष्यछात्रार्यिकाक्षुल्लिकापुत्रकलत्रमित्रखजनवान्धवादिलक्षणं सचेतनं त्यजति, इतरच्च अचेतनं क्षेत्रवास्तुधनसुवर्णरनरूप्यताम्रवस्त्रभाजनशम्पाशनादिक वर्जयति । कथम् । सर्वथा सर्वप्रकारेण मनोवचनकाययोगेन निविधेन प्रत्येक कृतकारितानुमोदेन प्रकारेण संग सजति । मनसा फुतकारितानुमोदनेन परिग्रह त्यजति, बचनेन कृतकारितानुमोदन संग त्यजति, कायेन कृतकारितानुमोदेन संग परिहरति इत्यर्थः । कीटक् राम् मुनिः । लोकव्यवहारविरतः लोकाना द्वेषको उत्पन्न करनेवाले उपकरणको, तथा ममत्व भावके उत्पन्न होनेमें निमित्त वसतिको छोड़ देता है उस मुनिके त्याग धर्म होता है || भावार्थ-संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्त व्यक्ति ही मुनिपदका अधिकारी होता है, अतः इनका त्याग तो वह मुनिश्रत धारण करते समय ही कर देता है । यहाँ तो मुनिको जिन वस्तुओंसे काम पड़ता है उनके त्यागका ही निर्देश किया है । मुनिको जीनेके लिये भोजन करना पड़ता है, किन्तु वह कामोत्पादक सरस आहार ग्रहण नहीं करता, धर्मसाधनमें सहायक पीछी कमण्डल आदि भी ऐसे नहीं रखता, जिनसे. मनमें राग उत्पन्न हो, तथा ऐसी जगह नहीं क्सता जिससे ममत्व पैदा हो । इसीका नाम त्याग है । तस्त्रार्थसूत्रकी टीकामें संयमी मुनिके योग्य ज्ञान, संयम और शौचके उपकरण पुस्तक, पीली और कमण्डल देनेको त्याग कहा है ॥ ४०१॥ आगे आकिंचन्य धर्मको कहते हैं । अर्थ-जो लोकव्यवहारसे विरक्त मुनि चेतन और अचेतन परिग्रहको मन वचन कायसे सर्वथा छोड़ देता है उसके निम्रन्थपना अथवा आकिंचन्य धर्म होता है | भावार्थमुनि दान, सन्मान, पूजा, प्रतिष्ठा, विवाह आदि लौकिक कौसे विरक्त होते ही हैं, अतः पुत्र,स्त्री, मित्र, बन्धुबान्धव आदि सचेतन परिग्रह तथा जमीन जायदाद, सोना चांदी, मणि मुक्ता आदि अचेतन परिग्रहको तो पहले ही छोड़ देते हैं । किन्तु मुनि अवस्थामें भी शिष्य संघ आदि सचेतन परिमहसे और पीछी कमंडलु आदि अचेतन परिग्रहसे मी ममत्व नहीं करते । इसीका नाम आकिंचन्य है। मेरा कुछ भी नहीं है, इस प्रकारके भाषको आकिंचन्य कहते हैं । अर्थात् 'यह मेरा है। इस प्रकारके संस्कारको दूर करनेके लिये अपने शरीर वगैरहमें मी ममत्व न रखना आकिंचन्य धर्म है । १मस विवहार, ग चे (३१) वद्वार।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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