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१२. धर्मानुप्रेक्षा संपममेदाः साक्षान्मोक्षप्राप्तिकारणानि । सामायिक १ छेदोपस्थापना २ पर हारविशुद्धिः ३ सूक्ष्मसापरायः ४ यथाख्यातचारिममिति ५। तथा च पञ्चमहावतधारणपसमितिपरिपालन पञ्चशितिकयायनियहमायामिथ्यानिदानदण्डात्रय त्यागपत्रेन्द्रियजयः संयमः । “बंदसमिदिकसायाण दंडाण तहे दिखाण पंचहै। धारणपालगणियहचागजयो संजमो भणियो।"
असुहादो विणिवित्ती महे पविती य जाण चारिस । दससिदिगुत्तिजुतं वबहारणवादु जिणभणियं ॥" एतेषां विस्तारव्याख्या गोम्मटसारभगवत्याराधनाचारित्रमाराचारसारादिग्रन्थेषु ज्ञातव्या ।। ३९९ ॥ अथ तपोधर्ममाचष्टे
इह-पर-लोय सुहाणं णिरवेक्खो जो करेदि सम-भावो। विविहं काय-किलेस तव-धम्मो जिम्मलो तस्स ॥ ४०० ।।
छाया-इहपरलोकसुखानां निरपेक्षः यः करोति समभावः । विविध कायलेश तपोधमः निर्मल: नस्य ॥] तस्य मुनेः तपोषनस्य तपोधर्मस्तपश्वरणाख्यो धर्मों मवेत् । कथभूतस्तपोधर्मः । निर्मला भलातीतः दोषरहितः द्वादशमितपश्चरजातिवाररहितः । तस्य ह . पो मुनिः गोपनः कोश
मिति सरकारमू अनेकमेदभिनं शारीरदमनं शरीरस्पर्शनादीन्द्रियमनसा दमनं संयमन वशीकरणं विदधाति । 'अनशनावमोदर्यवृतिपरिसंख्यानरसपरित्याग विविक्तशय्यासनकायकेशा पाय तपः' । 'प्रायम्बितधिनयवैयावृत्स्यस्वाध्यायच्युत्सर्गध्यानान्युसरम इति द्वादशविध तपक्षरणं करोती. त्यर्थः । कायग्नेशं त्पिपासाक्षीतोष्णदशमसकादिपरीपहसहन शीतोष्णवर्षाकालेषु चतुःपथगिरिशिखरापगातरुवृक्षामूलेषु योगधरणं च करोति । यः कीदृक्षः सन् तपोवनः । इहपरलोकसुखाना निरपेक्षः, इहलोकसुखाना स्वर्गमर्त्यपातालस्थितानामिन्द्रनरेन्धधरणेन्द्रादीना सौख्याना वाञ्छारहिताश्च । 'निःशल्यो व्रती' इति वचनात् मायामिथ्यानिदानशल्यत्रयरहित इत्यर्थः । पुनः कीदृशः तपोधनः । समभाषः सर्वत्र सुखदुःखशत्रुमित्रलाभालाभेष्टानिष्टतृणकाशनादिषु समपरिणामः सदृशपरिणाम इत्यर्थः । तथा हिलपार्जितकर्मक्षयार्थ मार्गाविरोधेन तपखिना सप्यते इति तपः, सम्यग्दर्शनशानचा रिमरूपरनप्रयप्रकटीकरणार्थम् इच्छानिरोधो वा तपः ॥ ४०॥ अथ स्यागधर्ममाच
जो चयदि मिट्ठ-भोज उवयरणं राय-दोस-संजणयं ।
वैसर्दि ममत्त हेतुं पाय-गुणो सो हवे तस्स ॥४१॥ शील आदिका उपदेश करनेवाले, हित मित और मधुर वचन ही बोलना चाहिये । दूसरोंकी निन्दा
और अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिये । यह वाक्यशुद्धि है । इस प्रकार ये आठ शुद्धियां संयमीके लिये आवश्यक है । गोम्मटसारमें, पाँच प्रतोंका धारण, पांच समितियोंका पालन, कषायोका निग्रह, मन वचन कायकी प्रकृत्तिका त्याग और पाँचों इन्द्रियोंके जीतनेको संयम कहा है । इनका विस्तृत व्याख्यान चरणानुयोगके ग्रन्थोंसे जानना चाहिये ॥३९॥ आगे तपधर्मको कहते हैं। अर्थ-जो समभावी इस लोक और परलोकके सुखकी अपेक्षा न करके अनेक प्रकारका कार्यक्लेश करता है उसके निर्मल तपधर्म होता है || भावार्थ-भूख, प्यास, शीत, उष्ण, डांस मच्छर वगैरहकी परीषहको सहना, तथा शीतऋतुमें खुले हुए स्थानपर, प्रीष्मऋतुमें पर्वतके शिखरपर और वर्षाऋतुमें वृक्षके नीचे योग धारण करने को कायक्लेश कहते हैं। और कायक्लेश करनेका नामही तप है । किन्तु उसी मुनिका तप निर्मल कहा जाता है जो सुख दुःग्नमें, शत्रु मित्रमें, लाभ अलाभमें, इ अनिष्टमें और तृण कंचनमें समभाव रखता है, तथा इस लोक और परलोकके सुखोंकी जिसे चाह नहीं है । क्योंकि जो मायाचार, मिथ्यात्व और निदान (आंगामी सुखोंकी चाह ) से रहित होकर व्रतोंका पालन करता है वही व्रती कहलाता है। कोका क्षय करनेके उद्देश्यसे जैन मार्गके अनुकूल जो तपा जाता है वही तप तप है। इनको रोकनेका नाम भी तप है ।। ४०० ॥ अब त्याग धर्मको कहते हैं । अर्थ-जो मिष्ट भोजनको, राग
१ ग ककेस । २ स.पुस्तके एषा गाथा नारिख । ३म विसयविसमस । ४ म सुधो (दो)।
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