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स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
[ गा० ३९९
प्रापयतीति अक्षम्रक्षणमिति च नाम प्रसिद्धम् २ | यथा भाण्डागारे समुत्थितं वैश्वानरं अशुचिना शुचिना वा पानीयेन प्रशमयति गृही तथा यथालब्धेन यतिरप्युदामिं सरसेन विरसेन गादारेण प्रशमयतीत्युदराभिप्रशमनमिति य निषध्यते ३ । दातृजनबाया बिना कुशलो मुनिभ्रमरवदाहरतीति भ्रमराहार इत्यपि परिभाध्यते । येन केनचित् कृतचारेण श्वश्रपूरणवदुद्रगर्तमनगारः पूरयति खादुना निःस्वादुना वाहा रेगोदरगर्तपुरणमिति वपूर्ण चतिगयते ५ । प्रतिष्ठापनशुद्धिपरः संगतो नखरोमसिंघाण क श्लेष्मनिष्ट्रीयन शुक्र मलमूत्रत्यजने देहपरित्यागे च ज्ञातप्रदेशकालो जन्तुपीयां वाघा बिना प्रयतते । संयतेन शयनासनशुद्धिपरेण स्त्री दुष्टजीव नपुंसक चोर मद्यपायिकल्पपालबूत कारपक्षिवधकनी च लोकादिपापजनात्रासा वर्ज्याः, शृङ्गार विकार भूष गोयल वेष वेश्याडा भिरामगीतनृत्यवादिचा कुलप्रदेशा विकृतागुपदर्शन काष्ठमयालेख्यहास्योपभोगमहोत्सवबाद मनायुधव्यायाम भूमग्रश्व राग कारणानीन्द्रियगोचर विषया मदमानशोककोपसंक्लेशस्थानादयश्च परिहर्तव्याः, अकृत्रिमा गिरिगुहातस्कोट रादयः कृत्रिमाच शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासाः अनात्मोदेशनिष्पक्ष निरारम्भाः सेव्याः । तत्र संगतस्य त्रिविधो निवासः स्थानमासनं शयनं चेति । पादौ चतुरङ्गुलान्तरे प्रस्थाप्य अस्तिर्यगूर्ध्वान्यतममुखो भूत्वा यत्रात्मभावो यथावत्स्वभावः यथात्मबलवीर्य सदृशः कर्मक्षयप्रयोजनः असं लिष्टमतिस्तिष्ठेत् अथ न शक्नुयात् निष्प्रतिज्ञातः पर्यवादिभिरासनैरासीत यद्यपरिमितकालयोगः खिन्नो वा एकपार्श्वबाहुप्रलम्बन ताङ्गादिभिरल्पकालं श्रमपरिहारार्थं शयीत ७ । वाक्यशुद्धिः पृथिवीकायिकाद्यारम्भप्रेरणरहिता युद्धकामकर्कशर्सभिन्नालापशून्य परुषनिष्टरादिपरपीडाकर प्रयोगनित्सुका खोभक्तराष्ट्रान निपालाश्रितकथाविमुखा व्रतशीलदेशनादिप्रदानफला स्वपरहितमितमधुरमनोहरा परमवैराग्यहेतुभूता परिहृतपरात्मनिन्दाप्रशंसा संमतस्य योम्पा तदधिष्ठानाः सर्वसंपद इति ८ ।
'उदराति अशमन' भी कहते हैं । जैसे भौरा फूलको हानि न पहुँचाकर उससे मधु ग्रहण करता वैसे ही मुनि भी दाता जनों को कुछभी कष्ट न पहुँचाकर आहार ग्रहण करते हैं। इस लिये इसे भ्रमराहार या भ्रामरी वृत्ति भी कहते हैं। जैसे गड्ढेको जिस किसी भी तरह भरा जाता है वैसेही मुनि अपने पेटके गढेको स्वादिष्ट अथवा बिना खादवाले भोजनसे जैसे तैसे भर लेता है। इससे इसे पूरण भी कहते हैं । इस प्रकार भिक्षा शुद्धि जानना । प्रतिष्ठापन शुद्धिमें तत्पर मुनि देश कालको जानकर नख, रोम, नाकका मल, थूक, मल, मूत्र आदिका त्याग देश कालको जानकर इस प्रकार करता है, जिससे किसी प्राणीको बाधा न हो। यह प्रतिष्ठापन शुद्धि है । शयनासन शुद्धिमें तत्पर मुनिको ऐसे स्थानोंमें शयन नहीं करना चाहिये और न रहना चाहिये जहाँ स्त्री, दुष्टजीव, नपुंसक, चोर, शराबी, जुआरी, हिंसक आदि पापी जन रहते हों, वेश्याएं मार्ती नाचती हों, अश्लील चित्र अंकित हों, हंसी मजाख होता हो या विवाह आदिका आयोजन हो । इस प्रकार जहाँ रामके कारण हों, वहाँ साधुको नहीं रहना चाहिये | पहाड़ोंकी अकृत्रिम गुफाओं और वृक्षोंके खोखलोंमें तथा कृत्रिम शून्य मकान में अथवा दूसरों के द्वारा छोडे हुए मकानोंमें, जो अपने उद्देश्यसे न बनाये गये हों, उनमें मुनिको निवास करना उचित है। मुनिके निवासके तीन प्रकार हैं-खड़े रहना, बैठना और सोना । दोनों पैरोंके बीच में चार अंगुलका अन्तर रख कर, सुखको अवनत, उन्नत अथवा तिर्यग करके अपने बल और वीर्यके अनुसार मुनिको खडे होकर ध्यान करना चाहिये । यदि खड़ा रहना शक्य न हो तो पर्यत आदि आसन लगा कर बैठे । यदि धकान मालूम हो तो उसे दूर करनेके लिये शरीरको सीधा करके एक करवट से शयन करे | यह शयनासनशुद्धि हैं । पृथिवी कायिक आदि जीवोंकी जिसमें विराधना होती हो, ऐसे आरम्भोकी प्रेरणासे रहित वचन मुनिको बोलना चाहिये, जिससे दूसरेको पीड़ा पहुँचे ऐसे कठोर वचन नहीं बोलना चाहिये। स्त्री, भोजन, देश और राजाकी कथा नहीं करनी चाहिये । व्रत