SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -- ----- -३९९] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३०१ कूलपतिः प्रथलाध्यायवाचनाकथाविज्ञापनादिषु प्रतिपनिकुशला देशकालभावावयोधनिपुणा आचार्यानुमतबारिणी,तन्मूलाः सर्वसंपवः, सैघ भूषा पुरुषस्य, सैत्र मौः संसारसमुद्रोलरणे ३ । ईपिथशुद्धिः नानाविधजीवस्थानाना योनीनाम् आध्याणामव. बोधात् जनितप्रयापरिहतजन्तुपीडा ज्ञानादित्यवेन्द्रियप्रकाशनिरीक्षितदेशगामिनी द्रुतविलम्बितसंभ्रान्तविस्मितलीला सिकारदिगवलोकनादिदोषविरहितगमना, तस्या सत्यां संयमा प्रतिष्ठितो भवति विभत्र इन सुनीतौ ४ । मिक्षाशुद्धिः परीक्षितोभयप्रचारा प्रमृष्टपूर्वापरवाहदेशविधाना आचारसूत्रोक्तकालदेशप्रकृतिप्रतिपत्तिकुमाला लाभालाभमानापमानसमानमनोवृतिः गीतनृत्यवाद्योपजीविप्रसूतिकामृतकपण्याङ्गनापापकर्मदीनानाथदानशालायजनषिवाहादिमहलमोहपरिवर्जनपरो चन्द्रगतिरिव होनाधिकगृहा विशिष्टोपस्थाना लोकगतिकुलपरिवर्जनोपलक्षिता दीनवृत्तिविगमा प्रासुकाहारगवेषणसावधाना आगमविहितनिरवद्याशनपरिप्राप्तप्राणयात्राफला तत्प्रतिबद्धा हि चरणसंघद् गुणसंपदिव साधुजनसेवानिबन्धना, मा भिक्षा लाभालाभ्योः सरसविरसयोश्च समसंतोषवादिः भिक्षेति भाष्यते ५ । भिक्षाशुद्धिपरस्य मुनेरशन पञ्चविधं भवति, गोचाराक्षम्रक्षणोदरामिप्रशमनम्रमराहारश्नपूरणनामभेदेन । यथा सलीलसालंकारदरयुवतिभिरुपनीयमाने घासे मौन तदातत्सौन्दर्यनिरीक्षणपरस्तृणमेवाति यथा वा तृगली नानादेशसं यथालाभमभ्ययहरति न योजनासंपदमपेक्षते तथा भिक्षरपि भिक्षापरिवेषकजनमृदुललिततनुरूपवेषाभिलापविलोकननिरुत्सुकः शुष्ववाहारयोजनाविशेष यानवेक्षमागो यथागतममानीति गौरिव चारो गोचार इति कथ्यते । तथा गवेषणेति च । यथा शकटी रात्रभारपूर्णा सेन कनचिनेहन अक्षलेपं कृत्वा अमिलषितदेशान्तर बणिगू नयति तथा मुनिरपि गुणरमभरिलां तनुशक्टीम अनवयभिधायुरक्षम्रक्षणनाभिरेनसमाधिपत्तन -.---. पहले अपने शरीरको प्रतिलेखना करके, आचारांगमै कहे हुए काल, देश, स्वभावका विचार करे, तथा भोजनके मिलने न मिलनेमें, मान और अपमानमें समान भाव रक्खे और आगे लिखे घरोंमें भोजनके लिये न जावे । गा बजा कर तथा नाच कर आजीविका करनेवाले, जिस घरमें प्रसूति दुई हो या कोई मर गया हो, वेश्याके घर, जहाँ पापकर्म होता हो, दीन और अनाथोंके घर, दानशालामें, यज्ञशालामें, जहाँ विवाह आदि मांगलिक कृत्य हो रहे हों, इन घरोंमें भोजनके लिये न जाये, जो कुल लोकमें बदनाम हों वहाँ भी भोजनके लिये न जाये, धनवान और निर्धनका भेद न करे, दीनता प्रकट न करे, प्रासुक आहारकी खोजमें सावधान रहे, शास्त्रोक्त निर्दोष आहारके द्वारा जीवन निर्वाह करने पर ही दृष्टि हो । इसका नाम भिक्षा शुद्धि है । जैसे गुणलम्पदा साधु जनोंकी सेवा पर निर्भर करती है वैसे ही चारित्ररूपी सम्पदा भिक्षाशुद्धिपर निर्भर हैं । भोजनके मिलने और न मिलनेपर अथवा सरस या नीरस भोजन मिलनेपर भिक्षुको समान संतोष रहता है, इसीसे इसे भिक्षा कहते हैं । इस भिक्षाके पाँच नाम हैं । गोचार, अक्षम्रक्षण, उदराग्नि प्रशमन, भ्रमराहार और गर्तपूरण । जैसे वसाभूषणसे सुसज्जित सुन्दर स्त्रीके द्वारा घास डालनेपर गौ उस स्त्रीको सुन्दरताकी ओर न देखकर घासको ही खाती है, वैसे ही भिक्षु भी भिक्षा देनेवाले स्त्रीपुरुषोंके सुन्दर रूपकी ओर न देखकर जो रूखा, सूखा अथवा सरस आहार मिलता है उसे ही खाता है, इसीसे इसे गोचार या गोचरी कहते हैं । जैसे व्यापारी मालसे भरी हुई गाडीको जिस किसीभी तेलसे औंध कर अपने इच्छित स्थानको ले जाता है वैसे ही मुनि भी गुणरूपी रत्नोंसे भरी हुई इस शरीररूपी गाडीको निर्दोष भिक्षारूपी तेलसे औंधकर समाधिरूपी नगर तक ले जाता है । इस लिये इसे अक्षम्रक्षण कहते हैं । जैसे गृहस्थ अपने भण्डारमें लगी हुई आगको गदले अथवा निर्मल पानीसे बुझाता है वैसे ही मुनि भी उदराग्नि ( भूखकी ज्वालाको) सरत अथवा नीरस कैसा भी आहार मिल जाता है उसीसे शान्त करता है इससे इसे - -- १ आदर्श तु 'मंगलमेव परि" इति पाठः । -
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy