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________________ एवामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा० ३९९न्तरसमपादाभ्यां स्थिस्या परीक्ष्य भुजानस्य निमृतस्य तद्तदोषाभावः इत्येषणासमितिः ३ । धर्माविरोधिना परानुपरोधिनी वण्याणां जानादिसायमानो पुस्तकाबीना प्रहणे विसर्जने च निरीक्ष्य मयरपिन प्रमूख्य प्रवर्तनमादाननिपगसमितिः ।। स्थायराणा अङ्गमामा च जीवानामविरोधेन अमलमूत्रादिनिर्हरण शरीरस्य च स्थापनम् उत्सर्गसमितिः ५ । एवमीर्यासमिस्वादिषु वर्तमानस्य मुनेः तत्प्रतिपालनार्थम् एकेन्द्रियादिप्राणिपीलापरिहारः प्राणिसंयमः, इन्द्रियादिश्वर्येषु रागपरित्यागः इन्द्रियसंयमः । स चापतसंयमनिविधः, उत्कृष्ठो मध्यमो जपन्यति । तत्र प्रासुकवसतिभोजनादिमात्रयायसाधनस्य स्वाधीनज्ञामादिकस्य मुनेः जन्तूपनिपाते आल्मान ततोऽपद्दत्व दूरीकृत्य जीवान पासयनः उत्कृष्टसंयमो भवति । मूदुना मधुरपिस्छन प्रमुज्य जन्तून् परिहरतो मुनेः मध्यमः सैथमः । उपकरणान्तरेण प्रमृज्य जीवान परिदरतो जपन्यः संयमः । तथा चोक यलपरस्य समितियुक्तस्य हिंसादिपापबन्धो न भवति । अयनपरस्य पापबन्धो भवति । "मरघुव जीवदु जीवो अयदायारस्स णिच्छिया हिंसा । पदस्रा गरिथ धो हिंसामित्तेण समिदस्त || जदं चरे जद पिढे जद मासे जर्द सये। जदं मुंजेख भासेज एवं पार्वण बज्मइ ॥ तस्यापहतसंयमस्य प्रतिपालनार्थ शुम्बष्टकोपदेशः । तद्यथा अष्टौ शुस्यः । भावशुद्धिः १, कायशुद्धिः २, विनयशुधिः, ३ ईर्थापयशुद्धिः ४, मिक्षाशुद्धिः ५. प्रतिष्ठापनाशुद्धिः ६, शयनासनशुद्धिः ७, वाक्या बात माशुद्धः कोपरामजनिता मोक्षमार्गशल्याहितप्रसादा रामायुपासवरहिता, तस्मा सत्याम्, आचार: प्रकाशते परिशुद्धभित्तिगतचित्रकर्मवत् १। कायशुद्धिः निरावरणाभरणा निरस्तसंस्कारा यथाजातमल. धारिणी निराकृताइविकास सर्वत्र प्रयत्नयतिः प्रशममूर्तिमित्र प्रदर्शयन्ती, तस्या सत्यां न स्वतोऽभ्यस्य भयमुपजायते, नाप्यन्यतस्तस्य २ । विनयशुद्धिः अहंदादिपरमगुरुघु यथा अहत्पूजाप्रवणा ज्ञानादिषु यथाविधिभफियुक्ता गुरोः सर्वत्रानु - सोना चाहिये, यनपूर्वक भोजन करना चाहिये और यत्नपूर्वक बोलना चाहिये, ऐसा करनेसे पाप नहीं लगता' ।। पहले जो अपहृत संयम बतलाया है उसके पालनेके लिये आठ शुद्धियाँ बतलाई है। वे आठ शुद्धियाँ इस प्रकार हैं-भावशुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापयशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापनशुद्धि, शयनासनशुद्धि और वाक्यशुद्धि । इनका स्वरूप-- कोंके क्षयोपशमसे रागादि विकारोंसे रहित परिणामोंमें जो निर्मलता होती है वह भावशुद्धि है ! जैसे खच्छ दीवारपर की गई चित्रकारी शोभित होती है वैसे ही भावशुद्धिके होनेपर आचार शोभित होता है । जैसे तुरन्तके जन्मे हुए बालकके शरीरपर न कोई वस्त्र होता है, न कोई आभूषण होता है, न उसके बाल वगैरह ही संवारे हुए होते हैं, और न उसके अंगमें किसी तरहका कोई विकार ही उत्पन्न होता है, वैसे ही शरीर पर किसी वस्त्राभूषणका न होना, बाल वगैरहका इत्र तेल वगैरहसे संस्कारित न होना और न शरीरमें काम विकारका ही होना कायशुद्धि है । ऐसी प्रशान्त मूर्तिको देखकर न तो उससे किसीको भय लगता है और न किसीसे उसे भय रहता है । अर्हन्त आदि परम गुरुओंमें, उनकी पूजा वगैरहमें विधिपूर्वक भक्ति होना, सदा गुरुके अनुकूल आचरण करना, प्रश्न स्वाध्याय कथा वाती वगैरहमें समय बिधारनेमें कुशल होना, देश काल और भावको समझनेमें चतुर होना तथा आचार्यकी अनुमक्तिके अनुसार चलना विनयशुद्धि है । विनय ही सब संपदाओंका मूल है, वही पुरुषका भूषण है और वही संसाररूपी समुद्रको पार करने के लिये नौका है । अनेक प्रकारके जीवोंके उत्पत्तिस्थानोंका ज्ञान होनेसे जन्तुओंको किसी प्रकारकी पीड़ा न देते हुए, सूर्यके प्रकाशसे प्रकाशित भूमिको अपनी आंखोंसे देखकर गमन करना, न अति शीघ चन्दना, न अति विलम्बपूर्वक चलना, न ठुमक ठुमक कर चलना, तथा चलते हुए इधर उधर नहीं देखना, इस प्रकारके गमन करनेको ईर्यापथ शुद्धि कहते हैं। जैसे न्याय मार्गसे चलनेपर ऐश्वर्य स्थायी रहता है वैसे ही ईयर्यापथ शुद्धिमें संयमकी प्रतिष्ठा है । भिक्षाके लिये जानेसे
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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