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________________ -११९] १२. धर्मानुप्रेक्षा २९९ नासूयात्रियसंमेदाल्पुसारशङ्कितवान्तकषायपरिहासायुक्तासभ्य शपन निष्ठुर धर्मविरोधिदेशकालविरोध्यतिसंस्तवादि वाग्दोषविरहिताभिधानम् २अनगारस्य मोक्षेकप्रयोजनस्य प्राणिदयालत्परस्य कायस्थित्यर्थं प्राणयात्रानिमित्तं तपोबृंहणा च चर्या निमित्तं पर्यष्टतः शीलगुणसंयमादिकं संरक्षतः संसारद्वारीर भोगनिर्वेदत्रयं भावतो वस्तुयाथात्म्यस्वरूपं चिन्तयतो देशकाल्सामर्थ्यादिविशिष्टम् अगर्हितम् आहार नवकोटिपरिशुद्ध मेषणा समितिः । पड्डीवनिहायस्य उपद्रव उपवणम्, अच्छेदनादिव्यापारो विदावणं, संतापजननं परितापनं, प्राणिप्राणव्यपरोपणम् आरम्भः एवं उपद्रवणविद्रावयपरितापनारम्भक्रियया निष्पन्नमनं खेन कृतं परेण कारितं अनुमतं च आधाय तत्सेविनो अनशनादितपांसि अभ्रात्र का शादियोगा वीरासनादियोग विशेषाश्च भिनभाजनभरितामृतवत् प्रक्षरन्ति ततस्तदभश्यमिव परिहरतो भिक्षोः परकृतप्रशस्तप्रानुकाहारग्रहणेऽपि षट्चत्वारिंशो भवन्ति । तयथा । षोडशविध उद्गमदोषः १६, पोडशविध उत्पादनदोषः १६, दशविध एषणादोषः १०, संयोजनाप्रमाणाङ्गारधूमदोषाचत्वारः ४, एतैर्दोषैः परिवर्जितमाहारण मेषणा समितिरिति । नैःसंगिकों चर्यामातिष्ठमानस्य पात्रग्रहणे सति तत्संरक्षणादिकृतो दोषः प्रसज्यते कपालमन्यदू। भाजनमादाय पर्यटतो भिक्षोर्दैन्यम् आसज्यते । गृहिजनानीतमपि भाजनं न सर्वत्र सुलभं तत्प्रक्षालनादिविधौ च दुःपरिहारः पापलेपः । स्वभाजनेन देशान्तरं नीत्वा भोजने च आशानुबन्धः स्यात् । खपूर्वविशिष्ट भाजनाधिकगुणासंभवाच्च येन केनचित, भुञ्जानस्य दैन्यं स्यात् । ततो निस्संगस्य निःपरिग्रहस्य भिक्षोः स्वनाभ्यतिमिमा तम आदि अणि नि बाधे देशे निरालम्ब चतुरकुला में तत्पर मुनि शरीरको बनाये रखने के लिये, और तपकी वृद्धि के लिये देश काल और सामर्थ्यके अनुसार जो नत्र कोटिसे शुद्ध निर्दोष आहार महण करता है उसे एत्रणा समिति कहते हैं। दूसरेके द्वारा दिये गये प्राक आहारको ही श्रावकके घर जाकर मुनि ग्रहण करता है। उसमें भी ४६ दोष होते हैं, जिनमें १६ उद्गम दोष, १६ उत्पादन दोष, १० एषणा दोष और चार संयोजन, प्रमाणातिरेक, अंगार और धूम दोष होते हैं। इन छियालीस दोषको टालकर अपने हस्तपुटमें आहार ग्रहण करना एषा समिति है । मुनि पात्रमें भोजन नहीं करते। उनकी सब चर्या स्वाभाविक होती है। वे यदि अपने पास भोजनके लिये बरतन रखें तो उसकी रक्षाकी चिन्ता करनी पड़े और बरतन लेकर भोजनके लिये जानेसे दीनता प्रकट होती है। तथा यदि बरतनमें भोजन मांगकर कहीं ले जाकर खायें तो तृष्णा बढ़ती है। गृहस्थोंके धरपर बरतन मिल सकता है, किन्तु उसको मांजने बोनेका आरम्भ करना पड़ता है। इसके सिवाय यदि किसी गृहस्थाने टूटा फूटा बरतन खानेके लिये दिया तो उसमें भोजन करनेसे दीनता प्रकट होती है। अतः निष्परिग्रही साधुके लिये अपने हस्तपुरसे बढ़िया दूसरा पात्र नहीं है । इस लिये शान्त मकान में बिना किसी सहारेके खड़े होकर अपने स्वाधीन पाणिपात्रमें देख भाल कर भोजन करनेवाले मुनिको उक्त दोष नहीं लगते। यह एषणा समिति है। ज्ञान और संयम साधन पुस्तक कमंडलु वगैरहको देखकर तथा पीछीसे साफ करके रखना तथा उठाना आदान निक्षेपण समिति है। स्थावर तथा त्रस जीवोंकी विराधना न हो इस प्रकारसे मल मूत्रादि करना उत्सर्ग समिति है । इन समितियोंका पालन करते हुए एकेन्द्रिय आदि प्राणियोंकी रक्षा होनेसे प्राणिसंयम होता है तथा इन्द्रियोंके विषयोंमें राग द्वेष न करनेसे इन्द्रियसंयम होता है । कहा भी है--समितियों का पालन करनेसे पापत्रन्ध नहीं होता और असावधानता पूर्वक प्रवृत्ति करनेसे पापबन्ध होता है। और भी कहा है – जीव मरे या जिये, जो अयत्वाचारी है उसे हिंसाका पाप अवश्य लगता है । और जो सावधानता पूर्वक देख भाल कर प्रवृत्ति करता है उसे हिंसा हो जाने पर भी हिंसाका पाप नहीं लगता । और भी कहा है- 'मुनिको यत्नपूर्वक चलना चाहिये, यक्षपूर्वक बैठना चाहिये, यत्नपूर्वक
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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