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________________ २९८ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३९९ रक्षर्ण च तस्य भावः परिणामः भवेत् । तस्य कस्य । यः साधुः गमनागमनादिसर्वकर्मसु गमनम् अटनं परिभ्रमणम् आगमनम् आगतिः गमनागमने ते द्वै एवादिर्येषां तानि गमनागमनादीनि तानि सर्वकर्माणि च समस्तकार्याणि च तेषु गमनागमनपरिभ्रमणोपवेशनशयनादानाने क्षेपणभोजन मलमूत्रनिक्षेपणादिषु कार्येषु जीवरक्षणपरः प्राणिरक्षागरायणः दयापरिणतः पृथितेजोवायुतनस्पतिकायिककृमिकीट भूलता दियूकामत्कुणकीटक कुश्वाविदेशमपतङ्गमक्षिका दिगो महिषाश्वमनुष्यदेवा दिवसजीवन रक्षणपरः भुनिः तृणच्छेदं शुष्कद्रव्यतृणकाष्टपाषाणादिच्छेदम् अपिशब्दात् चालननिक्षेपणोश्बालनं स्थापनादिकं च न इच्छति । तथाहि धर्मोपबृंहणार्थे पञ्चसमितिपु वर्तमानस्य मुनेः तत्प्रतिपालनार्थ प्रागव्यपरोपणं परिहरन् षडिन्द्रियविषय परिहरणं संयम उच्यते स संयमो द्विविधः, उपेक्षासंज्ञकः अपहृतसंज्ञकश्च । तत्रांपेक्षा संन्यमः देशकालविधानज्ञस्य, परेषामनुपरोधेन व्युष्ट कायस्य त्रिगुसिगुप्तस्य मुनेः रागद्वेषयोरनभिषङ्गः इत्युपेक्षासंयमः अपहृतसंयमस्य मुनेः समितयः कार्यास्ता उच्यन्ते । ईर्याभाषैत्रणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः इति । तत्र ईयसमितिः नामकर्मोदयापादितविशेषैकद्वित्रिचतुःपचेन्द्रियभेदेन चतुर्द्विद्विद्धिंश्चतुर्विकल्पचतुर्दशजीवस्थानादिविधानवेदिनो मुनेः धर्मार्थं पर्यटतः गच्छतः सूर्योदये चक्षुषो विषयग्रहणसामर्थ्यम् 'उपजायते । मनुष्यहस्त्यश्वशकट गोकुलादिचरणपातोपहता वश्यायप्राये प्राकमार्गे अनन्यमनसः शनैर्न्यस्तपादस्य संकुचितावयवस्य उत्पार्श्वदृष्टेर्युग मात्रपूर्वनिरीक्षणावहितलोचनस्य स्थित्वा दिशोऽनवलोकयतः पृथिव्याद्यारम्भाभावात् ईर्यासमितिरित्याख्यायते १ । हितमितासंदिग्धानिधानं भाषासमितिः। मोक्षपदप्रापणप्रधानफलं हितम्, तत् द्विविधं स्वहितं परहितं चेति । मितमनर्थक प्रलपनरहितं स्फुटार्थ व्यक्ताक्षर चा असंदिग्धं तस्याः प्रपशो मिथ्याभिधा I मुनि आना, जाना, उठना, बैठना, सोना, रखना, उठाना, भोजन करना, मलमूत्र त्यागना आदि कार्यों में जीवरक्षाका ध्यान रखता है, इन कार्योंको करते हुए पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, कीट, पतंग, जूं, डांस, मच्छर, मक्खी, गाय, भैंस, घोडा, मनुष्य आदि किसी भी जीवको अपने निमित्तसे कष्ट नहीं पहुँचने देता वह मुनि संयमधर्मका पालक होता है। संयमके दो भेद हैं- उपेक्षा संयम और अपहृत संयम । तीन गुप्तियोंका पालक मुनि कायोत्सर्ग स्थित होकर जो राग द्वेषका त्याग करता है उसके उपेक्षा संयम होता है । उपेक्षाका मतलब उदासीनता अथवा वीतरागता है । अपहृत संयमके तीन भेद हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । अपने उठने बैठने के स्थान में यदि किसी जीव जन्तुको बाधा पहुँचती हो तो वहांसे खयं हृट जाना उत्कृष्ट अपहृत संयम है, कोमल मयूर पिच्छसे उस जीवको हटा दे तो मध्यम अपहृत संयम है और लाठी तिनके बगैरह से उस जीवको हटाये तो जघन्य अपहृत संयम है । अपहृत संयमी मुनिको पाँच समितियोंका पालन करना चाहिये । अतः समितियोंका स्वरूप कहते हैं । समितियां पांच हैं-ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदाननिक्षेपण समिति और उत्सर्ग समिति । मुनिको जगह जगह घूमना पड़ता है, अतः सूर्यका उदय हो जानेपर जब आंखें ठीक तरहसे सब वस्तुओंको देख सकें, मनुष्य, हाथी, घोड़ा, गाड़ी, गोकुल आदिके आवागमन से प्रासुक हुए मार्गपर मनको एकाग्र करके चार हाथ आगेकी जमीनको देखकर इधर उधर नहीं ताकते हुए धीरे धीरे चलना ईर्या समिति है । हित मित और असंदिग्ध बोलना भाषा समिति है । जिसका फल मोक्षकी प्राप्ति हो उसे हित कहते हैं । व्यर्थ बकवाद नहीं करनेको मित कहते हैं। जिसका अर्थ स्पष्ट हो, अथवा अक्षरोंका उच्चारण स्पष्ट हो उसे असंदिग्ध कहते हैं । मिथ्या, निन्दा परक, अप्रिय, भेद डाल देनेवाले, सार हीन, संशय और भ्रम डाल देनेवाले, कषाय से भरे हुए, परिहासको लिये हुए, अयुक्त, असभ्य, निठुर, धर्मविरोधी, देश काल के विरुद्ध और अतिप्रशंसापरक वचन मुनिको नहीं बोलना चाहिये । जीवदया -
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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