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________________ -३९९] १२. भागमेशा चशानमारित्राविधिक्षणे प्रचुरमपि अमितमपि वचनं वक्तव्यम् । सत्यसकायो दशविधः नाम रूप स्थापना ३ प्रातील ४ सविति ५ सयोजना ६ जनपद ७ देश ८ भाव र समय १० सत्यमेहेन । तत्र सचेतनेतर द्रव्यम असत्यर्फे यमबहारार्य संज्ञाकरणं तमामसत्यम, इन्द्र इत्यादि । यदर्थासनिधानेऽपि स्पमात्रेणोच्यते तदपसत्यम्, यथा त्रिपुरवाहिए असत्यपि चैतन्योपयोगादावथें पुरुष इत्याधि ३ । असत्यप्यर्थे यत्कार्मा स्थापित गुताक्षसारिनिक्षेपादिषु तत्स्थापनासत्यम, चन्द्रप्रमप्रतिमा इत्यादि ३ । साधनादीनोपशमिकाहीन भावान् प्रतीत्य पदचने तत्प्रतीत्यसत्य, पुरुषरतात इत्यादि ४ । योकसंवृत्त्यागतं बचस्तत्सवित्तिसत्यम् , यथा पृथिव्याधनेक कारणत्वेऽपि सति पर जातं पकमित्यादि ५। धूपपूर्णवासनामुलेपन प्रकर्यादिषु पामकरईसचक्रसर्वतोभद्रक्रौनव्यूहादिषु अमेसनेतरद्रव्यागों यथामागविधान सैनिवेशाविर्भाबकं यद्वचस्तरयोजनासमम् ६ । द्वात्रिंशजनपथ्षु आर्यानाभेदेषु धर्मार्थकाममोक्षाणां प्रापकं यचखानपयसत्यम्, राजा राणक इत्यादि ५ । प्रामनगरराजगणपाण्डिजातिकुलादिधर्माणामुपदेशक यतचस्तादेशसत्यम्, प्रामो परवापत मावि । छयस्थज्ञानस्य व्ययाथात्म्यादर्शनेऽपि संयतस्य संयतासयतस्य वा खगुणपरिपालनार्थ प्रासुकमिवमासुकमित्यादि यवतद्वावसत्यम् । प्रतिनियतषद्रव्यपाथाणामागमगम्याम याथात्म्याविष्करणं यवचनं तत्समयसत्यम् । समयोतरवृध्द्या बालो युवा पल्योपम इत्यादि १.। सत्यवापि प्रतिष्ठिताः सर्वगुणसंपदः, अमृतामिभाषिणं नई बन्धकोऽप्यक मन्यन्ते, मित्राणि च विरफिभावमुपयान्ति, विशम्युदकावीन्यप्येने न सहन्ते, जिवाच्छेदनसर्व बहरणादिव्यसनभागपि भवति इति ॥ ३९८॥ संपमधर्ममाचष्टे जो जीव-रक्षण-परो गमणागमणादि-सव्य-कोसे। तण-छेदं पिण इच्छवि संजम-धम्मों" हवे तस्स ॥ ३९९ ॥ छामा-सा जीवरक्षणपरए गमनागमनाविसर्वकार्येषु । तृणमोद अपि न इति संयमधर्मः भवेत् सरस ] तल मुनेः संयमभावः स्यमन वशीकरण स्पर्शनरसनग्राणच धोत्रेन्द्रियमनसां षट्पृथिव्यतेजोवाश्वनस्पसिनसक्रानिकानां व्यवहारके आश्रयसे कहा जाता है यह संवृति सत्य है । जैसे पृथिवी आदि अनेक कारणोंसे उत्पन्न होने पर भी कमलको पंकज ( कीचड़से पैदा होनेवाला ) कहा जाता है । चूर्ण वगैरहसे जो माण्डनों औरह की स्थापना की जाती है उसमें जो यह कहा जाता है कि यह अमुक द्वीप है, यह अमुक जिनालय है, इसे संयोजना सत्य कहते हैं । जिस देशकी जो भाषा हो वैसा ही कहना जनपद सस्य है । ग्राम नगर आदिका कथन करनेवाले वचनको देश सत्य कहते हैं । जैसे जिसके चारों और बाद हो पाह गांव है । छास्यका ज्ञान वस्तुका यथार्थ दर्शन करनेमें असमर्थ होता है फिर भी श्रावक अथवा मुनि अपना धर्म पालनेके लिये जो प्रामुक और अनासुकका व्यवहार करते हैं वह भाव सत्य है । जो वस्तु आगमका विषय है उसे आगमके अनुसार ही कहना समय सस्प है, जैसे पल्य और सागर वगैरहके प्रमाणका कयन करना । इन सत्य वचनोंको बोलनेवाले मनुष्यमें ही गुणोंका वास रहता है। किन्तु जो मनुष्य झूठ बोलता है, बन्धु बान्धव और मित्रगण भी उसका विश्वास नहीं करते। इसी लोकमें उसकी जीभ काटवादी जाती थी, राजा उसका सर्वस्व छीन लेता था । अतः सत्य वचन ही बोलना चाहिये ॥ ३९८ ॥ आगे संयमधर्मको कहते हैं। अर्थ-जीवकी रक्षामें तत्पर जो मुनि गमन आगमन आदि सब कार्योंमें तृणका भी छेद नहीं करना चाहता, उस मुनिके संयमधर्म होता है ॥ भावार्थ-स्पर्शन, रसना, घाण, चक्षु, श्रोत्र और मनको वशमें करना तथा पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, घायुकायिक, और उसकायिक जीवोंकी रक्षा करनेका नाम संयम है। जो २५ गमणार । २ मसग कम्मेस । र तिणछेयं । ४ (मस!) संयमभाऊ (ओ) व संजम्म । कार्तिके. ३० - - - - -
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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