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________________ स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा [गा ३९८ धावयसि प्रक्षालयति । केन । समसंतोषजलेन, समः तृणरलकाशनशत्रुमित्रष्टानिष्टवस्तुसाम्ये समता संतोषः शुभाशुमेषु सर्व माध्यस्थं समश्च संतोषश्च समसंतोषो तावेद जलमुदकं तेन धोवति शुद्ध निर्मलं विद्धाति । स मुनिः कीदृक्षः। भोजनगृद्धिरहितः भोजनम् आहारस्य उपलक्षणात् कनकयुवतिगजाश्ववस्वादीना ग्रहणे तस्य अतिगृद्धिः अत्याकाला वाछा तया विहीनः । शीचं लेभविनिर्मुक्तमित्युक्त्वात् । तथाहि प्रकर्षप्राप्तलोभनिवृत्तिः शौचमित्युच्यते । शुच्याबारं नरमिहापि सन्मानयन्ति, सर्वे दानादयश्च गुणास्तमधितिष्ठन्ति, लोभभावनाकान्ते हृदये नावकाश लमन्ते गुणाः । स च ल्येभः जीवितारोम्येन्द्रियोपभोगविषयभेदाचतुर्विधः । स्वपरविषयत्वात् स प्रत्येक द्विधा मिद्यते । स्थजीवितलोभः १ परजीवितलोभः १ स्वारोग्यलोभः ३ परारोग्यलीमः ४ खेन्द्रियलोभः ५ परेन्द्रियलोभः ६ स्खोपभोगलोभः ७ परोपभोगलोभश्चेति 4। अतस्खभिवृत्तिलक्षणं शौचं चतुर्विधमिति ॥ ३९७ ॥ अथ सत्यधर्ममाह जिण-ययणमेव भासदि तं पालेदुं असकमाणो वि । ववहारेण वि अलियं ण पददि जो सञ्चवाई सो ॥ ३९८ ।। [छाया-जिनवचनमेव भाषते तत् पालयितुम् अशक्नुवानो अपित व्यवहारेण अपि अलीकं न वदति यः सत्यवादी सः॥] स मुनिः सत्यवादी सत्यं चदत्येवंशीलः सत्यवादी सत्यधर्मपरिणतो भवेत् । स कः। यः जिनवचनमेव भाषते जिनस्य वचन द्वादशातरूप जैन सिद्धान्तशास्त्रं वक्तिते । एवकारणेन न सांख्यसौगतभवैशेषिकचार्याकादिपरिकल्पितं नव वकि। तत जिनवचनं पालयितुं रक्षितुं ज्ञातु वा, ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्थी इति पालधातुः ज्ञानार्थेऽपि वर्तते, अशक्यमानोऽपि अशक्तोऽपि असमर्थोऽपि अपिशब्दात् न केवल शक्तोऽपि, अपि म वक्ति न वदति न भाषते । किं तत् । भलीकं मृषापचनम् असत्य न वक्ति। केन । व्यवहारेण दत्तिप्रतिग्रहभोजनादिव्यापारण, अथवा पूजाप्रभावनाद्यर्थम् अली कवचनं न बदति । अपिशब्दात न केवलम् अव्यापारेण । तथाहि रासु प्रशस्तेषु दिगम्बरेषु महामुनिषु तदुपासकेषु व श्रेष्टेषु लोकेषु साधुवचनं समीचीनश्चनं यत् तत्सत्यमित्युय्यते । सन्तः प्रव्रज्यां प्राप्ताः तद्रताः वा ये वर्तन्ते तेषु यवचनं साधु तत्सत्यम् । तया अतः लोभका त्यागरूप शौचधर्म पालना चाहिये ।। ३९७ ॥ अब सत्यधर्म को कहते हैं। अर्थजैन शाखोंमें कहे हुए आचार को पालनेमें असमर्थ होते हुए भी जो जिन वचनका ही कथन करता है, उससे विपरीत कथन नहीं करता, तथा जो व्यवहारमें भी झूठ नहीं बोलता, वह सत्यवादी है । भावार्थ-जैन सिद्धान्तमें आचार आदिका जैसा स्वरूप कहा है, वैसा ही कहना, ऐसा नहीं कि जो अपनेसे न पाला जाये, लोक निन्दाके भयसे उसका अन्यथा कथन करे, तथा लोक व्यवहारमें मी सदा ठीक ठीक बरतना सत्य धर्म है। सत्यवचनके दस भेद हैं- नाम सत्य, रूप सध्य, स्थापना सत्य, प्रतीत्य सस्य, संवृतिः सत्य, संयोजना सत्य, जनपद सत्य, देश सत्य, भाव सत्य और समय.सत्य | सचेतन अथवा अचेतन वस्तुमें नामके अनुरूप गुणोंके न होनेपर भी लोक व्यवहार के लिये जो इच्छानुसार नामकी प्रवृत्ति की जाती है उसे नाम सत्य कहते हैं जैसे कि मनुष्य अपने बच्चों का इन्द्र आदि नाम रख लेते हैं । मूल वस्तुके न होते हुए भी वैसा रूप होनेसे जो व्यवहार किया जाता है उसे रूप सत्य कहते हैं जैसे पुरुषके चित्रमें पुरुष के चैतन्य आदि धर्मों के न होने पर भी पुरुषकी तरह उसका रूप होनेसे चित्रको पुरुष कहते है। मूल वस्तुके न होते हुए भी प्रयोजनवश जो किसी वस्तु में किसीकी स्थापना की जाती है उसे स्थापना सत्य कहते हैं। जैसे पाषाणकी मूर्तिमें चन्द्रप्रभकी स्थापना की जाती है। एक दूसरेकी अपेक्षासे जो वचन कहा जाता है वह प्रतीय सत्य है । जैसे अमुक मनुष्य लम्बा है। जो घचन लोकमें प्रचलित १.जोण वददि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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