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________________ -१९७] १२. धर्मानुप्रेक्षा २९५ मनसा वक्रं कुटि माचरति म विवधाति, सरसावं ममसा चिन्तयतीत्यर्थः । वर्क न करोति, मानारूप एवं लं कायेन न विद्धाति । तथा व कुटिलबचनं वचनेन जिल्हया न जल्पति न बति । 'मनोरच कामकर्मणाम् कौटिल्यमार्जवमभिधीयते इति वचनात् । तथा निजदोषं स्वयंकृतापराधम् अतिचारादिदोषकृतं नैव भोपायति न वाच्छादयति । खकुतशेषं गर्हानिन्दादिकं करोति प्रायश्वितं विदधाति च । योगस्य हि कायवाब्धनोरक्षणस्य अवकता आर्जवमित्युच्यते । ऋजुहृदयमधिवसन्ति गुणा मायाभावं नाश्रयन्ति । मायाविनो न विश्वसिति लोकः । मायातिर्यग्योनिवेति गर्हिता च गतिर्भवतीति ॥ ३९६ ॥ शौचत्वमाह तिब्बकी 1712172 सम-संतोस जलेणं जो धोषदि तिब्वे लोह-मल- पुंजं । भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्चं हवे' विमलं ॥ ३९७ ॥ [ छाया - समसंतोषजलेन यः धावति तीव्रलोभमलपुजम् । भोजनगृद्धिविहीनः तस्य शौच भवेत् विमलम् ॥ ] तस्य मुनेः चित्तम् उत्तममानसे शौचरवं पवित्रं वा बिमले लोभादिमलरहित शौचपरिणत वित्तमित्यर्थः भवति । तस्य कस्य । यः मुनिः तृष्णाष्टोभमलपुत्रं धोयदि प्रक्षालयति । तृष्णा परपदार्थाभिलाषः, लोभः परवस्तुग्रहणाकांक्षा, तृष्णा च लोभव तृष्णा लोभौ तावेव मलः किल्बिषं तस्य पुञ्जः समूहः तं तृष्णा लोभमलपुर्ज, परपदार्थानिलाष पर वस्तुग्रहणकांक्षारूपमराशि धारी होता है। क्यों कि मन, वचन और कायकी सरलताका नाम आर्जव है । तथा जो अपने अपराधको नहीं छिपाता, व्रतोंमें जो अतिचार लगते हैं उनके लिये अपनी निन्दा करता है और प्रायश्चित्तके द्वारा उनकी शुद्धि करता है यह भी आर्जव धर्मका धारी है । वास्तव में सरलता ही गुणोंकी स्थान है। जो मायावी होता है उसका कोई विश्वास नहीं करता तथा वह मरकर तिर्यञ्च गतिमें जन्म लेता है ॥ ३९६ ॥ आगे शौच धर्मको कहते हैं । अर्थ-जो समभाव और सन्तोष रूपी जलसे तृष्णा और लोभ रूपी मलके समूहको धोता है तथा भोजनकी गृद्धि नहीं करता उसके निर्मल शौच धर्म होता है । भावार्थ-तृण, रत्न, सोना, शत्रु, मित्र आदि इष्ट अनिष्ट वस्तुओंमें राग और द्वेष न होनेको साम्यभाव कहते है और संतोष तो प्रसिद्ध ही है। पदार्थों की अभिलाषा रूप तृष्णा और प्राप्त पदार्थोंकी लिप्सा रूप लोभ ये सब मानसिक मल है गन्दगी है । इस गन्दगीको जो समता और सन्तोष रूपी जलसे घोडालता है अर्थात् समताभात्र और सन्तोषको अपनाकर तृष्णा और लोभको अपने अन्दरसे निकाल फेंकता है, वह शौच धर्मका पालक है। तथा मुनि कंचन और कामिनी का माग तो पहले ही कर देता है, शरीरकी स्थितिके लिये केवल भोजन ग्रहण करता है। अतः भोजनकी तीव्र लालसा नहीं होना भी शौच धर्मका लक्षण है। असलमें लोभ कषायके त्यागका नाम शौच है । लोभके चार प्रकार है- जीवनका लोभ, नीरोगताका लोभ, इन्द्रियका लोभ, और उपभोगका लोभ । इनमेंसे मी प्रत्येकके दो भेद हैं-अपने जीवनका लोभ, अपने पुत्रादिकके जीवनका लोभ, अपनी नीरोगताका लोभ, अपने पुत्रादिकके नीरोग रहनेका लोभ, अपनी इन्द्रियों का लोभ, पराई इन्द्रियोंका लोभ, अपने उपभोगका लोभ और परके उपभोगका लोभ । इनके व्याग का नाम शौच धर्म है। शौच धर्मसे युक्त मनुष्यका इसी लोक में सन्मान होता है, उसमें दानादि अनेक गुण पाये जाते हैं इसके विपरीत लोभी मनुष्यके हृदयमें कोई भी सगुण नहीं ठहरता, १ ग विठ (३१) [ष्णा ] स म स ग त सुचित हवै।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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