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२५४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा० ३९६बनादरं करोति, निर्मदं मदरहितमात्माने करोतीत्यर्थः। कीदक्षो मुनिः । उत्तमज्ञामप्रधामः, उत्तम श्रेष्ठ पूर्वापर विरुद्धरहित ज्ञान जैमभुस भेदविज्ञान प्रधानं यस्य स तयोक्तः । जिनकथितसकलशास्त्रज्ञः सन् आत्माम हीलति अमादरति ज्ञानमय करोति । मह विद्वान् सकलशाबशः, कविरहम् , अहं वादी, गमकोऽहम . चलुरोऽहम, मत्सकाशात् कोऽपि विद्वान शासशोभ कवीश्वरादिको न च इत्यादिक गर्व मदं न विदधाति । मत्सकाशात अनेकशानिनो भवन्ति, श्रुतज्ञानिभ्यः एकाशात् अवधिशानिनो शाने बहुतरम्, ततो मनःपर्ययज्ञानिना ज्ञानमधिकम्, ततः केवलज्ञानिना ज्ञानं सर्वोत्कृष्टम् , गई फेनमात्रः अल्पशः इत्यादिकं निरहंकारत्वं विदधाति । पुनः कथंभूतः । उत्तमतपश्चरणकरणशीलः, उत्तमानि तानि च तपश्चरणानि ख्याविपूजालाभरहितान्यनशनाघमोदर्यादिद्वादशविधतपश्चरणानि तेषां करणे कर्तव्ये शील सभाचो यस्य स तयोक्तः । अथवा उत्तमसपासि अनशनादीनि द्वादश, उत्तमचरणानि चारित्राणि पश्नमहाव्रताचीनि प्रयोदशधा, सामायिकावीनि वा, तेषां करणे श्रीलं खभावो यस्य स उत्तमतपश्चरणशीलः सन् , आत्मनः हेलनां करोति, तपश्चरणादिगई न करोति, अहं तपस्ली अहं बारित्रवान् साधुः इत्यादिमदं न करोति। तथाहि उसमजातिकुलरूपविज्ञानश्वर्यभूतलाभदौर्यस्यापि सतः विद्यमानस्य मुनेः तस्कृतमदावेशाभावात् परप्रयुक्तपरिभवनिमित्ताभिमानाभावो मार्दवं माननिहरणमषगन्तव्यम् । मार्दवोपेतं शिष्य गुरवोऽनुगृमन्ति, साधबोधपि साधु मन्यन्ते, ततश्च समप्रज्ञानादीनां पात्रीभवति। अतः स्वर्गापवर्गफलप्राप्तिः। मानमलिनमनसि व्रतशीलानि नावतिष्ठन्ते । साधवचन परित्यजन्ति, तन्मूलाः सर्वा विपद इति ।। १९५ ॥ अथ मायास्वभावमाह
जो चिंतेइ ण वंक ण कुणदि वकं ण जंपदे' वकं ।
जय गोषोदे गंध-दोस अगाव-धम्मो हवे तस्स ॥ ३९६ ॥ [छाया-यः चिन्तयति न वक्र न करोति वक्र म जल्पति वक्रम् । न च गोपायति निजदोषम् आर्जवधर्मः भवेत् तस्य ॥ तस्य मुनीश्वरस्य भावधर्मों भवेत् । तस्य कस्य । यो मुनिः य म चिन्तयति, व] कुटिल फुटिलपरिणाम
कवि हूँ, वादी हूँ, गमक हूँ, चतुर हूं, मेरे समान कोई भी विद्वान शास्त्रज्ञ अथवा कवि नहीं है, प्रत्युत यह विचारता है कि मुझसे गले अनेक ज्ञानी है क्यों कि श्रुतज्ञानियोंसे अवधि ज्ञानी बड़े होते हैं, उनसे मनःपर्ययज्ञानी बड़े होते हैं और उनसे बड़े सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञानी होते हैं। मैं तो अल्पज्ञ हूँ। यह मुनि मार्दवधर्मका धारी है। तथा जो मुनि अनशनआदि बारह प्रकारके तोंको और तेरह प्रकारके चारित्रको पालता हुआ भी अपने तपश्चरणका गर्व नहीं करता वह मुनि मार्दव धर्मका धारी है। सारांश यह है कि उत्तम जाति, उत्तम कुल, उत्तम रूप, उत्तम ज्ञान, उत्कृष्ट ऐश्वर्य और शक्तिसे युक्त होते हुए भी मद न करना उत्तम मार्दव है। क्योंकि मानके दूर होनेका नाम मार्दव है । जो शिष्य विनयी होता है उसपर गुरुकी कृपा रहती है । साधु जन भी उसकी प्रशंसा करते हैं। अतः वह सम्यग्ज्ञानका पात्र होता है । और सम्यग्ज्ञानका पात्र होनेसे उसे स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति होती है । इसके विपरीत मानसे मलिन चित्तमें व्रत शील वगैरह नहीं ठहर सकते । साधु जन घमंडी पुरुषसे दूर रहते है । अतः अहंकार सब विपत्तियोंका मूल है ।। ३९५ ॥ आगे आर्जव धर्मको कहते हैं । अर्थजो मुनि कुटिल विचार नहीं करता, कुटिल कार्य नहीं करता और कुटिल बात नहीं बोलता, तथा अपना दोष नहीं छिपाता, उसके आर्जव धर्म होता है ॥ भावार्थ-जिसके मनमें मायाचार नहीं है, जिसके कर्ममें मायाचार नहीं है और जिसकी बालोंमें मायाचार नहीं है, अर्षात् जो मनसे विचारता है, वही प्रश्चनसे कहता है और जो वचनसे कहता है बही कायसे करता है वह आर्जव धर्मका
सग कुपदिण।२७मस गपए।