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________________ ४०३] १२. धर्मानुशा ३०५ उद्दारः मानसन्मानदानपूजाला भादिलक्षणः तस्मात् विरतः विरक्तः निवृतः अथवा संघयात्रा प्रतिष्ठा प्रतिनाप्रासादोद्धरणादिपुण्यकरणादिरहितः । तथा तवार्थसूत्रे एवमप्युक्तं च । 'नास्ति अल्प किंचन किमपि अकिंचनो निःपरिग्रहः तस्म भावः कर्म वा आकिंचन्यं निःपरिग्रहसं निजशरीरादिषु संस्कारपरिहाराय ममेदमित्यभिसंधिनिषेधनमित्यर्थः । तदाचिन्न चतुःप्रकारे भवति । सम्य परस्य च जीवितलोभपरिहरणं १, स्वस्य परस्य न आरोग्यलोभ परिहरणं २, स्वस्य परस्य च इन्द्रियभपरिहरणं ३, स्वस्य परस्य चोपभोगलोभयञ्जनं चेति ४ । शरीरादिषु निर्ममत्वात् परमनिर्ऋतिमवाप्नोति । यथा यथा शरीरं पोषयति तथा तथा लाम्मभ्यं तजनयति तपस्यनादरो भवति, शरीरादिषु कृताभिष्वङ्गस्य मुनेः संसारे सर्वकालमभिष्य एव ॥ ४०२ || अथ ब्रह्मचर्य धर्ममाख्याति कम्पनु जो परिहरेदि संगं महिलाणं व परसदे रुवं । काम - कहादि-गिरीहो णत्र- विह-बंर्भ हवे तस्स ॥ ४०३ ॥ [ छाया-थः परिहरति संगै महिलानां नैव पश्यति रूपम्। कामकथादिनिरीह : नवविधब्रह्म भवेत् तस्य ॥ ] तस्य सुनेः नवधा ब्रह्मचर्यं भवेत, नवप्रकारैः कृतकारितानुमगुणिनामनो वचनकायैः कृत्वा स्त्रीसंगं वर्जयति ब्रह्मचर्य स्वात । ब्रह्मणि स्वरुपे शुद्धबुद्धे शुद्धविद्रूपे परमानन्दे परमात्मने चरति गच्छति विप्रत्यनुभवतीति परमानन्दैकामृतरसं स्वादयति भुनक्तीति ब्रह्मचर्यं भवति । तस्य वस्य । यो मुनिः महिलाना संगं परिहरति, स्त्रीणां युवतीनां देवीनां मानुषी तिरवीना व संग संगति गोष्ठों लजति वनितासंगासुतशय्यासनादिकं परिहरतीति, तथा महिलानी स्त्रीणां रूप जघनस्तुनवइन नयनादिमनोदराजादिलक्षणं रूपं नैव पश्यति नैवावलोकते । कथंभूतो मुनिः । कामकथादिनिवृत्तः कामपा शरीर वगैरह भी निर्ममत्व होनेसे मोक्षपदकी प्राप्ति होती है। किन्तु जो मुनि शरीरका पोषण करते हैं, उनका तपस्या में आदर भाव नहीं रहता । अधिक क्या, शरीर आदि से ममता रखनेवाला मुनि सदा मोहकी कीचड़ में ही फंसा रहता है ॥ ४०२ ॥ आगे ब्रह्मचर्य धर्मका वर्णन करते हैं । अर्थ- जो मुनि त्रियोंके संगसे बचता है, उनके रूपको नहीं देखता, कामकी कथा आदि नहीं करता, उसके नवधा ब्रह्मचर्य होता है । भावार्थ - अह्म अर्थात् शुद्ध बुद्ध आनन्दमय परमात्मामें लीन होनेको ब्रह्मचर्य कहते हैं । अर्थात् परमानन्दमय आत्मा के रसका आस्वादन करना ही ब्रह्मचर्य है | आमाको भूलकर जिन परवस्तुओंमें यह जीव लोन होता है उनमें स्त्री प्रधान है। अतः स्त्रीमात्रका, चाहे वह देवांगना हो या मानुषी हो अथवा पशुयोति हो, संसर्ग जो छोड़ता है, उनके बीच में उठता बैठता नहीं है, उनके जघन, स्तन, मुख, नयन आदि मनोहर अंगोंको देखता नहीं है तथा उनकी कथा नहीं करता उसीके मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना मेदसे नौ प्रकार का मचर्य होता है । जिन शासनमें शीलके अठारह हजार भेद कहे हैं जो इस प्रकार हैं- स्त्री दो प्रकार की होती है अचेतन और चेतन । अचेतन त्रीके तीन प्रकार हैं-लकड़ी की, पत्थरकी और रंग वगैरह से बनाई गई । इन तीन भेदोंको मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना इन छः गुणा करने पर १८ भेद होते हैं । उनको पाँच इन्द्रियोंसे गुणा करने पर १८४५ - ९० भेद होते हैं। इनको द्रव्य और भावसे गुणा करने पर ९० x २ = १८० एकसौ अस्सी भेद होते हैं । उनको क्रोध, भान, माया और लोभसे गुणा करने पर १८० x ४ = ७२० भेद होते हैं। चेतन खोके भी तीन प्रकार हैं- देवांगना, मानुषी और तिर्यश्चनी । इनको कृत कारित अनुमोदनासे गुणा करनेपर ३ x ३ - १ गप्पच । (स) गणितो. मणिम सग वहा । कार्तिके० ३९
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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