________________
१२. धर्मानुभेक्षा झा | स्थावरेलः पिपीलिकामखुणादिभिः सहिसोनिमश्रा ।। अधिकवितस्तिमात्राया भूमेरधिकाया प्रद्दणं प्रमाणाविरेकोषः। शीतवातातपाधुपाश्यमाद्विता वसतिरिय निन्दो कुर्वतो वसनं धूमदोषः ।९। निर्वाता विशाला जास्तुष्णा शोभनेयमिति तशनुराग झालदोषः । एवमेतैरुद्रमादिदोषैरनुपहता वसतिः हुदा, तस्याः दुःप्रमाजनादिसंस्काररहितायाः जीवसमवरहितामाः भत्र्यारहिताया षसल्याः अन्तर्बहिर्वा वसति यतिः विविक्तशम्यासमरतः । अथ का विविक्ता जससिरित्यत्राह । "सुण्णचरगिरिगुहारुक्समूलक्षातुगारदेवबुले । अकदयभारारामघरादीणि य बियिताई ।।" शून्य गृह लिगुडावृक्षामूल आगन्तुकानी वैश्म देवकुल शिक्षागृह केनचिदकलम् अकृतप्रारभारं कथ्यते । आरामगृहे कीडार्थमायातानामावासाय कृतम् एता विविका यसतयः । अत्र वसतेदाथाभावमाचष्टे ॥ "कलहो बोलो श्रोशा वामोहो संकरो ममति साकाणज्जपणविषायो परिय विविज्ञाए बसधीए॥" कलो ममेदं च वसतिस्तवेदमिति कलहो न केनचित अन्यजनरहितलात्, पोखे शब्बाला मशः व्यामोहो वैदिस्यम, मकरम् अयोग्हरसंयतः सह मित्रगम, ममत्वं ममेदै नास्ति, ध्यानस्य अध्यययन प प्याघातः । इति विविक्तक्षयनासनतयोविधानम् ॥ ४४९ ॥ अथ कायले शतपोनिधानं प्रतनोति
दुस्सह-उपसग्ग-जई आसाषण-सीय-बाय-खिण्णो वि ।
जो णवि खेदं गच्छदि काय-किलेसो तवो' तस्स ॥ ४५० ।। [छाया-दुस्सहोपसर्गज्यी आतापनशीतधातखिनः अपि । यः नैय खेद गति कायक्लेशं तपः तस्य ॥] सत्य निर्मन्थमनेः कायशः कायस्य शरीरस्य उपलक्षणात इन्द्रियादेच केशः केशनं दमनं कदर्थन तपो भवति । तस्य कस्म । म मुनिः खेदं श्रम चिश मानसे खेदखिमत्वं नापि गच्छलि ने प्राप्नोति । कीदग्विधो मुनिः । आतापनशीत
गृहसके द्वारा दी गई वसतिक्म दायक दोपसे दूषित है । स्थावर जीवों और त्रस जीवोंसे युक्त वसतिका उम्मिश्र दोषसे दूषित है । मुनियों को जितने वितस्ति प्रमाण जमीन ग्रहण करनी चाहिये उससे अधिक जमीन ग्रहण करना प्रमाणातिरेक दोष है । इस वसतिकामें हवा ठंड या गर्मी वगैरहका उपद्रव है ऐसी पुराई करते हुए वसतिकामे रहना धूम दोष है । यह वसतिका विशाल है, इसमें वायुका उपद्रव नहीं है, यह बहुत अच्छी है, ऐसा मानकर उसके ऊपर राग भाव रखना इंगाल दोष है । इस प्रकार इन उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषोंसे रहित वसतिका मुनियोंके योग्य है । ऐसी वसतिकामें रहनेवाला मुनि विविक्त शप्पासन वपका धारी है ।। ४४८-४९ ॥ आगे कायकेश तपको कहते हैं । अर्थ-दुःसह उपसर्गको जीतनेवाला जो मुनि आतापन, शीत बात यगैरहसे पीड़ित होनेपर मी खेदको प्राप्त नहीं होता, उस मुनिके कायलेश नामका तप होता है ।। भावार्थ-तपस्वी मुनि ग्रीष्म ऋतुमें दुःसह सूर्यकी किरणोंसे तये हुए शिलातलोपर आतापन योग धारण करते हैं । तथा शीत ऋतुमे अर्थात् पौष
और मायके महीनेमें नदी समुद्र आदिके किनारे पर अथवा वनके कोचमें किसी खुले हुए स्थानपर योग धारण करते हैं। और वर्षाऋतुमें वृक्षके नीचे योग धारण करते हैं, जहां वर्षा रुक जानेपर भी पत्तोंसे पानी टपकता रहता है और झंशा घायु बहती रहती है । इस तरह गर्मी सदी और वर्षा का असल्य कष्ट सहनेपर भी उनका चित्त कभी खिन्न नहीं होता। इसके सिवाय वे देव मनुष्य तिर्यन और अवेतनके द्वारा किये हुए दुःसह उपसर्गोको और भूख प्यासकी परीषहको भी सहते है, उन मुनिके कायझेश नामका तप होता है । चरिनसार आदि ग्रन्थोंने भी कहा है-वृक्ष के मूलमें भ्यान लगाना, निरम आकाशके नीचे आतापन योग धारण करना, वीरासन, कुक्कुटासन, पर्यङ्कासन आदि अनेक प्रकारके आसन लगाना, अपने शरीरको संकुचित करके शयन करना, ऊपरको मुख १कग त (ओ)।