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स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
[ गा० ४७६
ध्वस्ते जन्तुजाते दर्थिते । स्वेन चान्येन यो हस्तद्विसारौद्रमुच्यते ॥" "हिंसा कर्मणि कौशलं निपुणता पायोपदेशे मृर्श, शक्ष्यं नास्तिकशाराने प्रतिदिनं प्राणातिपाते रतिः । संत्रासः सह निर्देयेर बिरतं नैसर्गिकी क्रूरता, यरस्याद्देहभृता तदन गदितं रौद्रं प्रशान्ताशयैः ॥" "केनोपायेन घातो भवति ततुमतो का प्रवीणोऽत्र हन्ता, हन्तुं कस्यानुरागः कतिभिरिह दिनैईन्यते जन्तुजातम् । हत्वा पूज करिष्ये द्विजगुरुमस्तां पुष्टिशान्यर्थमित्थं यत्स्यादिसामिनन्दो अगति तनुभृतां वृद्धि प्रणीतम् ॥" "गगनजलधरित्रीचारिणां देहभाजा, दलनदहनबन्धच्छेदषा तेषु यदनम् । दृतिन खकरनेत्रो पाटने कौतुकं यत्, तहि गदिता रौद्रमेवम् ॥” जन्तुपीडने दृष्टे श्रुते स्मृने यो हर्षः हिंसानन्दः परेषां वघादिचिन्तने हिंसानन्दः, इति हिंसानन्दः प्रथमः १ अत्यवचने परियतः मृषावादकघने परिणतः अमृतानन्दाख्यं रौद्रध्यानम् । तथाहि । "विधाय वञ्चकं शास्त्रं मार्गमुद्दिश्य निर्दयम् । प्रयास व्यसने लोकं भोक्यऽहं वाञ्छितं सुखम् ॥" "असल चातुर्यबलेन लोकाग्रहीष्य एकारम्यादिजानन्धुरणि ।" "असत्यसामयवशादराती
नृपेण वान्येन च घातयामि । अदोषियां दोषचयं विधाय चिन्तेति रौद्राय मता मुनीन्द्रः ॥" " अनेकासत्यसंकल्यः प्रमोदः प्रजायते । मृषानन्दात्मकं रौद्रं तत्प्रणीनं पुरातनैः ॥" कीदृक्षः सन् । तत्रैव स्थिरचितः अनुतानन्दे विचितः । इति मृषानन्दं द्वितीयं विध्यानम् २ ॥ ४७५ ॥
पर - विलय हरण-सीलो सगीय-विसए सुरक्खणे दक्खो । लय-चिंताविडो निरंतरं तं पि रुद्द पि ॥ ४७६ ॥
[ छाया - परविषयहरणशीलः स्वकीयविषये सुरक्षये दक्षः । तद्रतम्बिताविष्टः निरन्तर तदपि सदम् अपि ॥ ] अपि पुनः तदपि निरन्तरं रौद्रव्यानं भवेत् । तत् किम् परविषयहरणशीलः परेषां विषयाः रत्नभूवणैरुत्यादिधनधान्य
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कुशल होना, पापका उपदेश देनेमें चतुर होना, नास्तिक धर्ममें पण्डित होना, हिंसासे प्रेम होना, निर्दय पुरुषोंके साथ रहना और स्वभावसे ही क्रूर होना, इन सबको वीतरागी महापुरुषोंने रौद्र कहा है । 'प्राणियोंका घात किस उपाय से होता है ? मारनेमें कौन चतुर है ? किसे जीवघातसे प्रेम है ! कितने दिनों में सब प्राणियों को मारा जा सकता है : मैं प्राणियों को मारकर पुष्टि और शान्तिके लिये 'ब्राह्मण, गुरु और देवताओंकी पूजा करूँगा । इस प्रकार प्राणियोंकी हिंसा में जो आनन्द मनाया जाता है उसे रौद्रध्यान कहा है।' आकाश, जल और थलमें विचरण करनेवाले प्राणियों के मारने जलाने बांधने, काटने वगैरह का प्रयत्न करना, तथा दांत, नख वगैरह के उखाड़ने में कौतुक होना यह भी रौद्र ध्यान ही है |' सारांश यह है कि जन्तुको पीड़ित किया जाता हुआ देखकर, सुनकर या स्मरण करके जो आनन्द मानता है वह हिंसानन्दि रौद्रध्यानी है तथा - 'ठगविद्या शास्त्रोंको रचकर और दयाशून्य मार्गको चलाकर तथा लोगोंको व्यसनी बनाकर मैं इच्छित सुख भोगूँगा, असत्य बोलने में चतुरता बलसे में लोगों से बहुतसा धन, मनोहारिणी कन्याएँ वगैरह ठगूँगा, मैं असत्यके बलसे राजा अनवा दूसरे पुरुषोंके द्वारा अपने शत्रुओंका घात कराऊँगा, और निर्दोष व्यक्तियों को दोषी साबित करूंगा, इस प्रकारकी चिन्ताको मुनीन्द्रोंने रौद्रध्यान कहा है ।।' इस प्रकार अनेक असत्य संकल्पों के करनेसे ओ आनन्द होता है उसे पूर्व पुरुषोंने मृषानन्दि रौद्र ध्यान कहा है ।। ४७५ ।। अर्थ- जो पुरुष दूसरोंकी विषयसामग्रीको हरनेका स्वभाववाला है, और अपनी विषयसामग्री की रक्षा करनेमें चतुर है, तथा निरन्तर ही जिसका चित्त इन दोनों कामों में लगा रहता है वह भी रौद्र ध्यानी है ॥ भावार्थ- दूसरोंके रत्न, सोना, चांदी, धन, धान्य, स्त्री, वस्त्राभरण वगैरहको चुराने में ही
१ लमसग चित्ता ।
सतं विरुदं ।