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________________ -३९४] १९. धर्मानुप्रेक्षा यशप्रकारे परिणति प्रातः । पुनः विभूतः। सर्वत्र मध्यस्थः, सर्वेषु सुख दुःख तृणे रत्ने लाभालामे शत्रौ मिचे मध्यवः उदासीनः समचित्तः । रागद्वेषरहितः असौ साधुः यतीश्वरः धर्मों मण्यते ॥ ३९२ ॥ अथ दशप्रकारं धर्म विष्पोति सो चेव दह-पधारो खभादि-भावहिं सुपसिरहे। ते पुणु भणिजमाणा मुणियब्वा परम-भत्तीए ॥ ३९३ ॥ [छाया--स चैव दशप्रकारः क्षमादिभावैः सुप्रसिद्धः । ते पुनर्भण्यमामाः ज्ञातव्याः परमभक्त्या ॥] स एव भतिधमः दशप्रकारः दशमेदः । कैः । ममादिभाषैः, उनमक्षमामाईवार्जवसत्यशीचर्सयमतपस्त्यागाकिचन्यायायोख्यैः परिणामः परिणतः । कयंभूतस्तैः । सौख्यसारीः सौख्यं शर्म सारं श्रेष्ठ येषां येषु येभ्यो वा ते सौख्यसारास्तैः सौख्यसारैः सौख्येन शर्मणा वर्गमुक्त्यादिजेन सारैः श्रेष्ठः। अथोत्तरार्धन दशधर्मस्य दशगाथासूत्रेण व्याख्यायमानस्य पातनिर्य प्रतनोति । ते पुनः दश धर्माः दशविधधर्माः भाणिखमाणा काध्यमानाः मन्तम्याः सातम्याः। क्या । परमभक्त्या परमधर्मानुरागेण श्रेष्ठभजनेन ।। ३९२ ॥ अथोत्तमक्षमाधर्ममाचष्टे कोहेण जो ण तप्पदि सुर-णर-तिरिएहि कीरमाणे वि । अवसग्गे वि रहे सस्स स्खमा णिम्मला होदि ॥ ३९४ ॥ [छाया-क्रोधेन यःन तप्यते सुरनरतिर्यग्भिः क्रियमाणे अपि । उपसगै अपि रौ तस्य क्षमा निर्मला भवति॥ तस्स मुनेः क्षमा क्षान्तिनिर्मला भवति, उत्तमक्षमा धर्मः स्यात् । उनमग्रहणं ख्यातिपूजालामादिनित्यर्थ तपस्येवमनिस भव्यते । उत्तमक्षमा उत्तममार्दवादिष्विति । तस्य कस्य । यो मुनिः क्रोधेन कोपेन कृत्वा म तप्यति तापं संताप न गच्छति न चलते इत्यर्थः । क सति । रौदे घोरे उपसर्गेऽपि चतुर्विधोपसमें अपिशब्दात् न केवल अनुपसर्गे । कीदो। क्रियमाणे निष्पाघमाने अपिशब्दात् श्रचेतनेनानध्यवसायेन च । केः क्रियमाणे उपसमें । सूरनरसियेभिः सुराव नरामतिर्वबच सुरलरतिर्यचः तैः ॥ यथा श्रीदत्तमुनिः श्यन्तरकृतोपसर्ग प्राप्य शुद्धनुकशुद्धचिपखरूपं साम्यखखरूपं वीतरामनिर्विकल्पसमाधिना समाराध्य घातिचतुष्टयं हत्वा केवलज्ञान लब्ध्वा मोक्ष खामोपलब्धि प्राप॥ तथा विद्युबरमनिः ne - --- --- --- - --- - -- - --- ----.....------- और सम्यक् चारित्रका धारक होता है । उत्तम क्षमा आदि दस धर्मोको सदा अपनाये रहता है और सुख दुःख, तृण रन, लाम अलाभ और शत्रु मित्रमें समभाव रखता है, न किसीसे देष करता है और न किसीसे राग करता है, वह साधु है । और वही धर्म है। क्योंकि जिसमें धर्म है वही तो धर्मकी मूर्ति है, बिना धार्मिकोंके धर्म नहीं होता १३९२॥ अब धर्म के दस भेदोंका वर्णन करते हैं । अर्थ-वह मुनिधर्म उत्तम क्षमा आदि भावोंके मेदसे दस प्रकारका है, उन भावोंका सार ही सुख है। आगे उसका वर्णन करेंगे । उसे परमभक्तिसे जानना उचित है । भावार्थ-उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, अकिंघन्य और ब्रह्मचर्यके मेदसे मुनिधर्म दस प्रकारका है । इन दस धोका सार सुख ही है। क्योंकि इनका पालन करनेसे वर्ग और मोक्षका सुख प्राप्त होता है। आगे इनमेंसे प्रत्येकका अलग अलग व्याख्यान करेंगे ॥ ३९३ ।। अब उत्तम क्षमा धर्मको कहते हैं । अर्थ-देव, मनुष्य और तिर्यञ्चोंके द्वारा घोर उपसर्ग किये जाने पर भी जो मुनि कोषसे संताह नहीं होता, उसके निर्मल क्षमा होती है। भावार्थ-उपसर्गके चार भेद है-देवकर, मनुष्यकृत, तिर्यचकत और अचेतनकृत | जो मुनि इन चारों ही प्रकारके भयानक उपसर्गोसे विचलित होकर अपने मनमें मी क्रोधका भाव नहीं लाता, यही मुनि उच्चम क्षमाका धारी होता है। शाओंमें ऐसे क्षमा ---- -- - -------- रामसागसुखपारहि। रस होवि (ही)
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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