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स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[ गा० १८८
वेदयोर्भेद मेदभि पृथतवं न मुध्यते न जानावि इति किम्। राजाहं, अई राजा नृपोऽहं पृथ्वीपाल कोऽहम्। भृत्योऽई, च पुन:, अहमेव सूत्यः कर्मकरोऽयं । अहमेव श्रेष्ठी । न्य पुनः अहमेव दुर्बलः निःखोऽहं वा कृणीभूतशरीरोऽहम् । अहमेव बलिष्ठः बलवान् बलवत्तरशरीरोऽहम् । इति एकत्वं परिणतो मिध्यात्वं प्राप्तो महिरात्मा जीवः जीवशरीरयोर्भेद पृथकः भिनं न जानातीत्यर्थः ॥ तथा योगीन्द्रदेवैः दोघकपटकन मिध्यात्वपरिणामेन कृत्वा बहिरात्मात्मनि योजयतीति स्वस्वरूपं निरूप्यते । "हउँ गोरज हउं सांवल हउं जि विभिण्ड वण्णु । हवं तणुअंगडं धूल हवं एहउ भूबज मण्णु ॥ १ ॥ ३ वजे । इत्थवं मण्णइ मुटु विसे ॥ २ ॥ मण्णइ सबु ॥ ३ ॥ जणणी जगणु वि कंत तवमित्तुविद । मायाजालु वि अध्पणजं मूढउ मण्णइ सब्बु ॥ ४ ॥ दुखई कारणि जे विषय ते सुहेब रमेश | मिच्छाइटिड जीवडड एस्थु ण काई करेइ || ५ ||" इति मूढात्मा मिध्यादृष्टिः जनः सर्वम् एवं मन्यते ॥ १८७॥ जीवकर्तृत्वादिधर्मान् गाणचतुष्टयेनाह -
सहगल गूढउ स्पष्ट सूरउ पंडित वेषु । खवणस बंदर सेवडज मूह
जीवो हवे' कत्ता सम्माणि कुब्वदे जम्हा |
कालाइ - लद्धि-जुत्तो संसारं कुणइ मोक्खं च ॥ १८८ ॥
वाला जीव दोनोंके भेदको नहीं जानता । भावार्थ- मैं राजा हूं, मैं नौकर हूं, मैं सेठ हूं, मैं दुर्बल हूं, मैं बलवान् हूं इस प्रकारसे लोग शरीरको ही आत्मा मानते हैं क्योंकि वे मिध्यादृष्टि हैं, अतः वे दोनोंके भेदको नहीं समझते । 'मैं राजा हूं' इत्यादि जितने भी विकल्प हैं वे सब शरीरपरक ही हैं; क्योंकि आत्मा तो न राजा है, न नौकर है, न सेठ है, न गरीब हैं, न दुबला है और न बलवान हैं । बहिर्दृष्टि लोग शरीरको ही आत्मा मानकर ये विकल्प करते हैं और यह नहीं समझते कि आत्मा इस शरीर में रमा होकर भी इससे जुदा है || १८७ ।। अब चार गाथाओंसे जीवके कर्तृत्व आदिका कथन करते हैं । अर्थ-यतः जीव सब कमको करता है अतः वह कर्ता है। वह स्वयं ही संसारका कर्ता है और काललब्धि आदिके मिलनेपर स्वयं ही मोक्षका कर्ता है || भावार्थ - यद्यपि शुद्ध निश्चय नयसे आदि मध्य और अन्तसे रहित तथा ख और परको जानने देखने वाला यह जीव अविनाशी निरुपाधि चैतन्य लक्षण रूप निश्चय प्राणसे जीता है तथापि अशुद्ध निश्चय नयकी अपेक्षा श्रनादिकालसे होनेवाले कर्मबन्धके कारण अशुद्ध द्रव्यप्राण और भाषप्राणोंसे जीता है इसीलिये उसे जीव कहते हैं । यह जीव शुभाशुभ कर्मोंका कर्ता है क्योंकि वह सम काम करता है । व्यवहार नयसे घट, वस्त्र, लाठी, गाड़ी, मकान, प्रासाद, स्त्री, पुत्र, पौत्र, असि, मषि, व्यापार आदि सब कायाको, ज्ञानावरण आदि शुभाशुभ कर्मोंको, और औदारिक वैक्कियिक और आहारक शरीरोंकी पर्याप्तियोंको औव करता है | और निश्चय नयसे टांकीसे पत्थर में कडेरे हुए चित्रामकी तरह निश्चल एक हायक स्वभाववाला यह जीव अपने अनन्त चतुष्टय रूप स्वभावका कर्ता है । यही जीव द्रव्य, क्षेत्र, फाल, भव और मायके भेद से पच परावर्तन रूप संसारका कर्ता है। यही कर्मोंसे बद्ध जीव जब संसार परिभ्रमणका काल अपुगल परावर्तन प्रमाण शेष रह जाता है तब प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करने के योग्य होता है इसे ही काल लब्धि कहते हैं। आदि शब्द से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव लेना चाहिये। सो द्रव्य तो वज्रवृषभ नाराच संहनन होना चाहिये । क्षेत्र पन्द्रह कर्मभूमियोंमें से होना चाहिये, काल
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१ ग आफ २ ग कारण बिविधा २६ दि । ४स पनि ।