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________________ १०. लोकानुप्रेक्षा १५३ “निषादभगान्धारषड्जममध्यमथैवताः । पञ्चमश्चेति सप्तैते तन्त्रीकण्ठोत्थिताः खराः ॥ १ ॥ कण्ठदेशे स्थितः षड्जः शिरःस्थ ऋषभस्तथा । नासिकायां च गान्धारो हृदये मध्यमो भवेत् ॥ २ ॥ पचमथ मुखे वस्तादेशे तु भवतः । निषादः सर्वगात्रे च वैमाः सप्त खरा इति ॥ ३ ॥ निषादं कुअरो भक्ति ब्रूते गौ अषभं तथा । अत्रा वदति गान्धार प भूते मुमुक् ॥ ४ ॥ अनीति मध्यमं फोन नः । पुम्पा काले कः समम् ॥ ५ ॥ नासाकण्ठमुरस्ताद्यजिह्वावन्तश्च संस्पृशन । वचः जायते यस्मात् तस्मात् षड्ज इति स्मृतः ॥ ६ ॥ गुणामुरसि मन्त्रस्तु द्वाविंशतिविधो ध्वनिः । स एव कण्ठे मध्यः स्यात् तारः शिरसि गीयते ॥ ७ ॥ वनं तु कांस्यताकावि वंशादिसुषिरं विदुः । ततं वीणाविकं वायं विततं पटादिकम् ॥ ८ ॥” इति खरसवाच्यं श्रवणविषयं करोति । क देहमिळतो जीवः । अपि पुनः, मुंजदि अनं भुझे, रानपान खाद्यखाथमाहारं भुंके मश्नाति । कः । देहमैलितो जीवः अपि पुनः गच्छति चतुर्दिखार्गे चतुर्दिदिया में अघ ऊर्ध्वमार्गे च याति प्रति कः । देहमिलितो जीनः ॥१८६॥ Brr जीवस्याम देहयोः जीवस्य भेदापरिज्ञानं दर्शयति - १८७] राओ हं भिचो हं सिट्ठी हं चेव दुब्बलो बलिओ । इदि एयत्ताविडो दोण्ह' भेयं ण बुञ्झेदि ॥ १८७ ॥ छाया - राजा कई मृत्यः अई श्रेष्ठी आई चैव दुर्बलः यदी । इति एकस्वाविष्टः द्वयोः मेदं न बुध्यति ॥ ] इस्यमुना प्रकारेण एकस्याविष्टः, अहं पशरीरमेवमित्येकत्वं परिणतः एकान्तत्वं मिध्यात्वं प्राप्तो महिरात्मा वा दोष्ठं इंयोजकमिला हुआ होनेपर भी जी चलता है । भावार्थ - ऊपर कही गई बातोंके सिवा शरीरसे संयुक्त होनेपर मी जीव सफेद, पीली, हरी, लाल और काले रंगकी विविध वस्तुओंको आंखोंसे मन लगाकर देखता है । तथा कानोंसे शब्दों को सुनता है । शब्द अथवा स्वर के भेद इस प्रकार बतलाये हैं निषाद, ऋषभ, गान्धार, षड्ज, मध्यम, धैवत, और पश्चम ये सात स्वर तीरूप कण्ठसे उत्पन्न होते हैं । १ । जो स्वर कण्ठ देशमें स्थित होता है उसे षड्ज कहते हैं। जो स्वर शिरोदेशमें स्थित होता है उसे ऋषभ कहते हैं । जो खर नासिका देशमें स्थित होता हैं उसे गान्धार कहते है । जो वर हृदयदेशमें स्थित होता है उसे मध्यम कहते हैं । २ । मुख देशमें स्थित खरको पश्चम कहते हैं । तालदेशमें स्थित स्वरको धैवत कहते हैं और सर्व शरीरमें स्थित खरको निषाद कहते हैं। इस तरह ये सात खर जानने चाहिये । ३ । हाथीका खर निषाद है। गौका खर वृषभ है। बकरीका स्वर गान्धार है और गरुडका स्वर षड्ज है । ४ । औौच पक्षीका शब्द मध्यम है । अबका खर चैत्रत है और वसन्तऋतु कोयल पाम खरसे कूजती है । ५ । मासिका, कण्ठ, अर, ताल, जीभ और दांत इन के स्पर्शसे बज स्वर उत्पन्न होता है इसीसे उसे षड्ज कहते हैं । मनुष्योंके उरप्रदेशसे जो बाईस प्रकारकी ध्वनि उच्चरित होती है वह मन्द्र है। यही जब कण्ठदेशसे उच्चरित होती है तो मध्यम है। और जब शिरो देशसे गाई जाती है तब 'सार' है । ७ । कांके बाजोंके वगैरह के शब्दको सुषिर कहते हैं। धीणा वगैरह वार्थोके वगैरह शब्दको वितत कहते हैं । ८ । इन सात स्वरोंको सही अशन, पान, खाद्य और खाद्यके मेदसे चार प्रकारके आगे बतलाते हैं कि जीव आत्मा और शरीर के मेदको मूख्य हूं, मैं सेठ हूं, मैं दुर्बल हूं, मैं बलवान् हूँ, इस प्रकार I शब्दको धन कहते हैं। बांसुरी शब्दको तत कहते हैं और दोल यह शरीरसे संयुक्त जीव ही सुनता है । आहारको ग्रहण करता है ॥ १८६ ॥ नहीं जानता । अर्थ- मैं राजा हूं, मैं शरीर और आत्माके एकको मानने १।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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