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________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० १८५ १२२ · [ छाया-संकरूपमयः जीवः सुखदुःखमयः भवति संकल्पः । तत् एव वेति जीवः देहे मिलितः अपि सर्वत्र ॥ ] जीवः आत्मा चेत् यदि संयमयः संकल्पनिर्वृतः स संकल्पः सुखदुःखमयो भवेत् सुखदुःखात्मको भवति । देहे शरीरे मिलितोऽपि श्रतोऽपि सर्वत्र सर्वात्रे सर्वशरीरप्रदेदो तं चिय तदेव सुखदुःखं वेति जानातीत्यर्थः ॥ १८४ ॥ अष देह मिलितो जीनः सर्वकार्याणि करोति सद्दर्शयति देहे - मिलिदो वि जीवो सव्य-कम्माणि कुब्वदे जम्हा । तम्हा पयट्टमाणो यत्तं बुझदे' दोन्हं ॥ १८५ ॥ [ छाया- देवमिलितः अपि जीवः सर्वकर्माणि करोति यस्मात् । तस्मात् प्रवर्तमानः एक बुध्यते द्वयोः ॥ यस्मात्कारणात् जीवः देह मिलितोऽपि शरीरयुकोऽपि । अपि शब्दात् विग्रहगत्यादी औदारिकवैषियिका हार कशरीररहितोऽपि । सर्वकर्माणि सर्वाणि कार्याणि घटपटलकुट मुकुटश कटगृहा सिमपि कृषिवाणिज्य गोपाल दिसर्वकार्याणि तथा शानाचरणादिशुभाशुभकर्माणि कुर्वते करोति विदधाति । तस्मात्कारणात् कार्यादिषु प्रवर्तमानो जनः । दण्डं द्वयोः जीवशरीरयोः एकस्व बुध्यते मन्यते जानाति ॥ १८५ ॥ अथ शरीरयुकत्वेऽपि जीवस्य दर्शनादिक्रियां ष्यनक्ति देह मिलिदो वि पिच्छदि देह-मिलिदो वि णिसुष्णदे' सदं । देह - मिलिदो वि भुंजदि देई - मिलिदो वि गच्छेदि ॥ १८६ ॥ [ छाया - देहमिलितः अपि पश्यति देहमिलितः अपि निवणोति शब्दम् । देवमिलितः अपि मुझे देहमिलितः अपि गच्छति ॥ ] अपि पुनः, देहमिलितो जीवः शरीरेण संयुक्त आत्मा पश्यति श्वेतपीतहरितारुण कृष्णरूपाणि वस्तूनि सर्वकार्याणि लोचनाभ्यां मनसा वा चावलोकयति जीवः । अपि पुनः, निसुणवे कर्णाभ्यां शृणोति । कि इति बेयुक्त न । होनेपर भी जीव उसीको जानता है । भावार्थ-यदि जीत्र संकल्पमय है अर्थात् संकल्पका एक पुंज मात्र है और संकल्प सुखदुःखमय है तो शरीरमें मिला होनेपर भी जीव समस्त शरीरप्रदेशोंमें होने वाले सुखदुःखको ही जानता है । आशय यह है कि यदि चार्वाक जीवको संकल्पविकल्पों का एक समूह मात्र मानता है तो वे संकल्पविकल्प सुखदुःखरूप ही हो सकते हैं। उन्हींको जीव जानता है तभी तो उसे 'मैं सुखी हूं, मैं दुःखी हूं' इत्यादि प्रत्यय होता है । बस वही तो जीत्र है ॥ १८४ ॥ आगे बतलाते हैं कि जीव शरीर में मिला हुआ होनेपर भी सब कार्य करता है। अर्थ-यतः शरीरसे मिला हुआ होनेपर भी जीव सब कार्यो को करता है । अतः प्रवर्तमान मनुष्य जीव और शरीरको एक समझता है || भावार्थ - जिस कारण से शरीरसे युक्त मी जीव तथा 'अपि' शब्द से विग्रहगति वगैरह में औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरसे रहित भी जीव घट, वस्त्र, लकड़ी, मुकुट, गाडी, घर, वगैरह बनाता है, असि, मधी, कृषि, व्यापार, गोपालन आदिसे आजीविका करता है, इस तरह वह सब कार्यों को करता है तथा ज्ञानावरण आदि जो शुभाशुभ कर्म हैं उनको करता है, इसकारणसे कार्य वगैरह करनेवाला मनुष्य यह मान बैठता है कि जीव और शरीर दोनों एकही हैं । किन्तु वास्तवमें ऐसा नहीं है- जीत्र जुदा है और शरीर जुदा है || १८५ ॥ आगे बतलाते हैं कि शरीरसे युक्त होने परभी जीव देखता सुनता है । अर्थ- शरीरसे मिला हुआ होनेपर भी जीव देखता है। शरीरसे मिला हुआ होनेपर भी जीव सुनता है । शरीर से मिला हुआ होनेपर भी जीव भोक्ता है और शरीरसे I १ ब देहि । [सम्वं कम्माणि ] । १ क म ल ग बुझदे । ४] दुर्ग ५ छ म स ग णिसुणवे, [ देहे मिलिदो वि शिक्षणदे] ६ [ देखे ] म सग गच्छे व गच्छेदि (१) । ८।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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