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________________ -१८४] १०. लोकानुप्रेक्षा स्वसंवेदनप्रस स्वानुभवप्रत्यक्षमिति यावत् । स चार्वाकः जीवमात्मानं आनन् सन् जीवाभावं जीवस्यास्मनः अभावं नास्तिव कहं कथं करोति केन प्रकारेण विदधाति । यो यै न वेत्तिस तस्याभावं कर्तुं न शकतीत्यर्थः ॥१८॥ अप युज्या चार्कि प्रति जीयसका विमावति जदि ण य हवेदि जीवो ता को वेदेदि सुक्ख-दुक्खाणि । इंदिय-विसया सन्धे को वा जाणदि बिसेसेण || १८३ ॥ [डाया-यदि न च भवति जीवः तत् कः वेत्ति मुखदुःखे । इन्द्रियविषयाः सर्वे का का जानाति विशेषेण ॥] यदि चेत् जीयो न च भवति तोताह का जीवः सुखदुःखानि ति बानाति । वि पुनः, विशेषेण विशेषतः, सर्वे इन्द्रियविषयाः स्पर्श रस ५ गन्ध २ वर्ण ५ शब्द रूपाः । प्राकृतस्थात् प्रथमा अर्थतस्तु द्वितीया विभक्तिः क्लिोक्यो । नामन्द्रियतिपमान को जानाति से नेटि। मनोभावे प्रत्यक्षकप्रमाणवाविनश्वार्याकस्येन्द्रिय प्रत्यक्ष कथं स्मात् ॥ १८३॥ अपात्मनः सतावे उपपत्तिमाह संकप्प-मओ जीयो सुह-दुक्खमय हवेइ संकप्पो । तं चिय वेददि जीवो देहे मिलिदो वि सम्वत्थ ॥ १८४ ।। और कहता है कि जीव नहीं है । यह चार्वाक जीवको विना जाने कैसे.कहता है कि जीव नहीं है ! क्योंकि जो जिसे नहीं जानता वह उसका अभाव नहीं कर सकता । चावीक केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण ही मानता है। उसके मतानुसार जो वस्तु प्रत्यक्ष अनुभत्रमें आती है केवल वही सत् है और जिसका प्रत्यक्ष नहीं होता वह असत् है | उसकी इस मान्यताके अनुसार मी जीवका सद्भाब ही सिद्ध होता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्तिको 'मैं हूँ ऐसा अनुभव होता है । यह अनुभव मिथ्या नहीं है क्योंकि इसका कोई बाधक नहीं है । सन्दिग्ध भी नहीं है, क्योंकि जहाँ सीप है या चांदी' इस प्रकारकी दो कोटियां होती हैं वहां संशय होता है। शायद कहा जाये कि 'मैं हूँ' इस अनुभवका आलम्बन शरीर है, किन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'मैं हूँ. यह अनुभव बिना बाम इन्द्रियोंकी सहायताके मनसे ही होता है, शरीर तो बाह्य इन्द्रियोंका विषय है। अतः वह इस प्रकारके खानुभवका विषय नहीं हो सकता । अतः 'मैं हूं' इस प्रकारके प्रत्ययका आलम्बन शरीरसे भिन्न कोई ज्ञानवान् पदार्थ ही हो सकता है। वही जीव है । दूसरे, जब चार्वाक जीवको प्रत्यक्ष प्रमाणका विषय ही नहीं मानता तो वह बिना जाने यह कैसे कह सकता है कि 'जीव नहीं है । अतः चार्वाकका मत ठीक नहीं है ॥ १८२ ।। अब अन्धकार युक्तिसे चार्वाकके प्रति जीवका सद्भाव सिद्ध करते हैं । अर्थ-यदि जीव नहीं है तो सुख आदिको कौन जानता है ? तथा विशेष रूपसे सब इन्द्रियोंके विषयोंको कौन जानता है। भावार्थ-यदि जीव नहीं है तो कौन जीव सुख दुःख वगैरहको जानता है । तथा खास तौरसे इन्द्रियोंके विषय जो ८ स्पर्श, ५ रस, २ गन्ध, ५ वर्ण, और ७ शब्द है, उन सबको मी कौन जानता है क्योंकि आत्माके अभाव में एक प्रत्यक्ष प्रमाणवादी चार्वाकका इन्द्रियप्रत्यक्ष मी कैसे बन सकता है ! यहां गाथामें 'इंदियविसयश सव्वे' यह प्राकृत भाषामें होनेसे प्रथमा विभक्ति है किन्तु अर्थ की दृष्टि से इसे द्वितीया विभक्ति ही लेना चाहिये ।। १८३ ।। फिर भी आत्माके सदावमें युक्ति देते हैं । अर्थ-यदि जीव संकल्पमय है और संकल्प सुखदुःखमय है तो सर्व शरीरमे मिला हुआ १गददे। कार्तिक १६
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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