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________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा गाणं भूय-वियारं जो मण्णदि सो वि भूद-गहिदन्वो । जीवेण विणा गाणं किं केण वि दीखदे' कत्थ ॥ १८९ ॥ [छपानं तनिक भूतगृहीतव्यः । जीवेन विना ज्ञानं किं केन अपि दृश्यते कुत्र ॥ ] rain: शान जीवः । गुणगुणिनोरमेदात, कारणे कार्योपचाराच ज्ञानशब्देन जीवो रयते । भूतविकारं ज्ञानं पृथि तेजोवायुविकारो जीवः मन्यते अशीकरोति । सोऽपि चार्वाकः भूतगृहीतव्यः भूतैः पिशाचादिभिः ग्रहीतव्यः गृथिकल इत्यर्थः + कवि कुत्रापि स्थाने केनापि मनुष्यादिजीयेन आत्मना विना ज्ञानं बोधः किं दृश्यते । अपि पुनः ॥ १८१ ॥ अथ सचेतन प्रत्यक्ष प्रमाणषा दिनं जीवाभाववादिनं च चार्वाकं दूषयति सश्रेयण-पच्चक्खं जो जीवं जेवं मण्णदे' मूढो । सो जीवं ण मुतो जीवाभावं कहं कुणदि ॥ १८२ ॥ [ छाया - सचेतन प्रत्यक्षं यः जीवं नैव मन्यते गूढः । स जीषं न जानन् जीवाभावं कथं करोति ॥ ] यश्चार्यको मूतः जीवमात्मानं नैव मन्यते, जीवो नाखीति कथयतीत्यर्थः । कीदृशं जीवम् । सचेतनं प्रत्यक्षं सत् विद्यमानं चेतन प्रत्यक्ष I १२० [ गा० १८१ होती है । द्रव्यका लक्षण गुणपर्यायवान् है और गुण या पर्यायका लक्षण द्रव्याश्रयी और निर्गुण है । द्रव्यका कार्य एकका और अन्वयपनेका ज्ञान कराना है, और पर्यायका कार्य अनेकत्वका और व्यतिरेकपनेका ज्ञान कराना है | अतः परिणाम, स्वभाव, संज्ञा, संख्या और प्रयोजन आदिका मेद होनेसे द्रव्य और गुण भिन्न हैं, किन्तु सर्वथा भिन्न नहीं हैं' ॥ १८० ॥ चात्रक ज्ञानको पृथिवी आदि पञ्चभूतका विकार मानता है। आगे उसका निराकरण करते हैं । अर्थ- जो ज्ञानको भूतका विकार मानता है उसे भी भूतोंने जकड़ लिया है; क्योंकि क्या किसीने कहीं जीवके बिना ज्ञान देखा है ॥ भावार्थ-यहां पर ज्ञानशब्दसे जीव लेना चाहिये; क्योंकि गुण और गुणीमें अभेद होनेसे अथवा ज्ञानके कारण जीवमें, कार्य ज्ञानका उपचार करनेले जीवको ज्ञान 'शब्दसे कहा जा सकता है । अतः गाथाका ऐसा अर्थ करना चाहिये जो चार्वाकमतानुयायी जीवको पृथिवी, जल, अग्नि और वायुका विकार मानता है, उसे भी भूत अर्थात् पिशाचोंने अपने वशमें कर लिया है; क्योंकि किसी भी जगह बिना आत्माके ज्ञान क्या देखा है ? चार्वाक मतमें जीव अथवा आत्मा नामका कोई अलग तत्व नहीं है। पृथिवी, जल, आग और वायुके मेलसे ही चैतन्यकी उत्पत्ति या अभिव्यक्ति होजाती है ऐसा उनका मत है । इसपर जैन का कहना है कि भूतवादी चार्वाक पर अवश्य ही मूत सवार हैं तभी तो यह इस तरह की बात कहता है, क्योंकि जीवका खास गुण ज्ञान है । ज्ञान चैतन्य ही रहता है, पृथिवी आदि भूतोंमें नहीं रहता । अतः जब पृथिवी आदि भूतोंमें चैतन्य अथवा - ज्ञानगुण नहीं पाया जाता तब उनसे चैतन्यकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है; क्योंकि कारणमें जो गुण नहीं होता वह गुण कार्य में मी नहीं होता । इसके सिवा मुर्देके शरीर में पृथिवी आदि भूतोंके रहते हुए भी ज्ञान नहीं पाया जाता । अतः ज्ञान भूतोंका विकार नहीं है ॥ १८९ ॥ केवल एक प्रत्यक्ष प्रमाण माननेवाले और जीवका अभाव कहनेवाले चार्वाकके मतमें पुनः दूषण देते हैं । अर्थ-जो मूढ खसंवेदन प्रत्यक्षसे सिद्ध जीवको नहीं मानता है वह जीवको बिना जाने जीवका अभाव कैसे करता है ? || भावार्थ -- जो मूढ़ चार्वाक स्वसंवेदन अर्थात् स्वानुभव प्रत्यक्षसे सिद्ध जीवको नहीं मानता १ म स दीसप २ स स णेय, म गय। ३ग भष्णवि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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