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१७. लोकांपेक्षा तत् मतिश्रुतादि मेधेन प्रसिद्ध शान बोधः मि पृथक् भवति यदि चेत्, सदा दोण्ट जीवशानयोः गुणगणिभावः,.शान गुणः जीवः गुणी इति भावः, रेण अस्यर्थ प्रणश्यति । शब्दात् खभावविभावः कार्यकारणभावच गृह्यते, समविन्ध्यवत् । यथा सद्यविध्ययोरत्यन्तभेदिन न घटते तथास्मशानयोरपि ॥ १५ ॥ अष जीवज्ञानयोः गुणगुणिभावन मेद निगवति
जीवस्स वि णाणस्स वि गुणि-गुण-भावेण कीरए भेओ।
(जं जाणदि तं गाणं एवं भेओ कहं होदि ॥ १८० ।। [छाया-जीवस्य अपिज्ञानस्य अपि गुणिगुणभावेन क्रियते मेदः । यत् जावाति तत् शानम् एवं भेदः कथं भवति ॥ जीवस्यापि शानस्यापि भेदः पृथक्त्वं गुणगुणिभावेन क्रियते । ज्ञान गुणः, भारमा गुणी, सानजीवखमान गुणगुणिनोः कविद्वेदः भिन्नलक्षणस्वात् , घटवषदिति तयोभिवलक्षणत्वं परिणाम विशेषात् शक्किमच्छजिमावतः संशसंख्याविशेषाण कार्यकारणभेदाच पावकोष्णावत् । तथा चोकमष्टसहभ्याम् । “मपवियोरेक्म सबोरष्यतिरेकातःपरिगामधिशेषाच शचिमच्छतिभावतः ॥ संज्ञासंख्याविशेषाश्च खलक्षणविभेदतः । कार्यकारणभेदाच तमानास्वं म सर्वथा ॥" इति ॥ १०॥ अथ ज्ञानं पृळ्यादिभूतविकारमिति वादिनं यावाकं निराकरोति
यदि ऐसा मानते हो तो जीव और ज्ञानमें से जीव गुणी है और ज्ञान गुण है यह गुणगुणी भाव एकदम नष्ट होजाता है । जैसे सम और विन्थ्य नामके पर्वतोंमें न गुणगुणी भाव है, न कार्यकारण भाव है, और न खभाव स्वभाववान्पना है । इसलिये वे दोनों असन्त भिन्न हैं । इसी तरह आत्मा और ज्ञानको भी सर्वथा भिन्न माननेसे उनमें गुणगुणीपना नहीं बन सकता ।। १७९ ॥ अब कोई प्रश्न करता है कि यदि आत्मा और ज्ञान जुदे जुदे नहीं हैं तो उनमें गुण गुणीका मेद कैसे है ! इसका उत्तर देते हैं । अर्थ-जीव और ज्ञानमें गुण-गुणी भावकी अपेक्षा भेद किया जाता है। यदि ऐसा न हो तो 'जो जानता है वह ज्ञान है। ऐसा मेद कैसे हो सकता है। भावार्थ-गुणगुणी भावकी अपेक्षा जीव और ज्ञानमें भी भेद किया जाता है कि ज्ञान गुण है और आत्मा गुणी है। क्योंकि जैसे भिन्न लक्षण होनेसे घट और वन भिन्न भिन्न है वैसे ही गुण और गुणी भी भिन्न लक्षणके होनेसे भिन्न भिन्न हैं-गुणका, लक्षण जुदा है और गुणीका लक्षण जुदा है । गुणी परिणामी है
और गुण उसका परिणाम है । गुणी शक्तिमान् है और गुण शक्ति है । गुणी कारण है और गुण कार्य है । तथा गुण और गुणीमें नाम भेद है । संख्याकी अपेक्षा भेद है गुणी एक होता है और गुण अनेक होते हैं । जैसे अग्नि गुणी है और उष्ण गुण है । ये दोनों यद्यपि अभिम है फिर मी गुण गुणी भावकी अपेक्षा इन दोनोंमें भेद है। इसी तरह जीव और ज्ञानमें मी जानना चाहिये । आचार्य समन्तभद्रने भी आप्तमीमांसा कारिका ७१-७२ में ऐसा ही कहा है और अष्टसहनीमें उसका व्याख्यान करते हुए बतलाया है कि 'द्रव्य अर्थात् गुणी और पर्याय अर्थात् गुण दोनों एक वस्तु है; क्योंकि वे दोनों अभिन्न हैं फिर भी उन दोनोंमें कथंचित् भेद है । क्योंकि दोनोंका खभाव भिन्न भिन्न है-द्रव्य अनादि अनन्त और एकखभाव होता है और पर्याय सादि सान्त और अनेक खभाषयाली होती है। द्रव्य शक्तिमान होता है और पर्याय उसकी शक्तियां हैं । इज्यकी स्वा द्रव्य है और पर्यायकी संज्ञा पर्याय है । द्रन्यकी संख्या एक होती है और पर्यायोंकी संख्या अनेक
गुणिणि, कमलमणि ।
आदर्श कारिकारण' इति पाठः।.