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स्वामिकार्तिकेयानुमेक्षा
[गा० १७८जीवो णाण-सहावो जाह अग्गी उण्हवो' सहावेण ।
अत्यंतर-भूदेण हि णाणेण ण सो हवे गाणी ॥ १७८ ॥ [छाया-जीवः शानखभावः यथा अग्निः उष्णः खमाक्न । अर्थान्तरभूतेन हि ज्ञानेन न स भवेत् शानी ॥] हिनश्चित कामेरकर जीवात् सर्वथा भिलेन स जीवः हामी भवेत् न । नैयायिकाः गुण
प्रणिनोरात्मज्ञानयोजिस्वमाचक्षते । सांख्यास्त आत्मनः सकाशात प्रकृतिमिछाततः बुद्धिर्जायते. प्रतेमहान इति वचनात् । तदपि सर्वमसत् । जीवः शानखभाषः । यथा अग्निः खभाचेन वष्णः, तथा बाल्मा समान ज्ञानमयः ॥ १७८॥ अथ जीवात् सर्वषा शान भिन्न प्रतिपादयतो नैयायिकान् दूषयति--
जदि जीवादो भिण्णं सध्य-पयारेण हवदि तं णाणं ।
गुण-गुणि-भावो य तहा दूरेण पणस्सदे' दुपहं ॥ १७९ ॥ [छाया-यदि जीवाद मिमं सर्वप्रकारेण भवति तत् शामम् । गुणनिभावः च तथा दूरेण प्रणश्यवे वोः॥] अथ जीवात् आत्मनः सर्वकारेण गुणगुणिभावन जन्यजनकभावेन ज्ञानात्मखमावेन खभावविभावेन पणाण ज्ञाने अनुभव भी हमें होना चाहिये; क्यों कि एक ही आमा सब शरीरोंमें व्याप्त है । परन्तु ऐसा नहीं देखा जाता । प्रत्येक प्राणीको अपने ही शरीर में होने वाले सुख दुःखका अनुभव होता है । इस लिये जीवको शरीर प्रमाण मानना ही उचित है ।। १७७ ॥ नैयायिक सांख्य वगैरह आरमासे ज्ञानको भिन्न मानते हैं । और उस भिन्न ज्ञानके सम्बन्धसे आत्माको ज्ञानी कहते हैं । आगे इसका निषेध करते हैं। अर्थ-जैसे अग्नि खभावसे ही उष्ण है वैसे ही जीव ज्ञानस्वभाव है। वह अर्यान्तरभूत ज्ञानके सम्बन्धसे ज्ञानी नहीं है । भावार्थ-नैयायिक गुण और गुणीको भिन्न मानता है । आत्मा गुणी है और ज्ञान गुण है । अतः वह इन दोनोंको भिन्न मानता है । सांख्य मतमें आत्मा और प्रकृति ये दो जुदे जुदे तत्त्व हैं । और प्रकृतिसे बुद्धि उत्पन्न होती है; क्यों कि 'प्रकृतिसे महान् नामका तव पैदा होता है। ऐसा सांख्य मतमें कहा है । इस तरहः ये दोनों मत आत्मासे ज्ञानको मिन्न मानते हैं। किन्तु यह ठीक नहीं हैं। क्योंकि जैसे अग्नि खभावसे ही उष्ण होती है वैसे ही आत्मा मी स्वभावसे ही ज्ञानी है । जिनके प्रदेश जुदे जुदे होते हैं वे भिन्नभिन्न होते हैं। जैसे डण्डाके .
प्रदेश जुदे हैं, और देवदत्तके प्रदेश जुदे हैं । अतः वे दोनों अलग २ दो वस्तुएं मानी जाती है । तथा • जब देवदत्त हायमें डण्डा लेता है तो इण्डेके सम्बन्धसे वह दण्डी कहलाने लगता है। इस तरह
गुण और गुणीके प्रदेश जुदे जुदे नहीं हैं। जो प्रदेश गुणीके हैं वे ही प्रदेश गुणके हैं। इसीसे गुण हमेशा गुणीवस्तुमें ही पाया जाता है । गुणीको छोड़कर गुण अन्यत्र नहीं पाया जाता । अतः गुणके सम्बन्धसे वस्तु गुणी नहीं है। किन्तु खभावसे ही वैसी है । इसीसे अग्नि खभावसेठी उष्ण है, आत्मा खभावसे ही ज्ञानी है; क्योंकि अग्नि और उष्णकी तथा आत्मा और जानकी सचा खतत्र नहीं है ।। १७८ ॥ आगे आमासे ज्ञानको सर्वथा भिन्न माननेवाले नैयायिकोंके मतमें दूषण देते हैं। अर्थ-यदि जीवसे ज्ञान सर्वथा भिन्न है तो उन दोनोंका गुणगुणीभाव दूरसे ही नष्ट हो जाता है | भावार्थ-यदि जीवसे ज्ञान सर्वथा भिन्न है, अर्थात् मति श्रुत आदिके मेदसे प्रसिद्ध शानमें और आत्मा में न गुणगुणी भाव है, न जन्यजनक भाव है, और न ज्ञान आत्माका खभाव है,
१समस उपहजओ। २ गुणिगुणि । ३ मविणस्सरे। ४ प सर्पया प्रकारेण।