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-२७७ १०. लोकानुप्रेक्षा
१९७ यिष्यतः पुनः खस्थान प्रविशति । असावाहारकसमुद्धातः) ६ । सप्तमः फेवलिना दण्डकपाटमन्यानधतरणलोकपूरण: सोऽयं केवलिसमुद्धातः सप्त समुद्धातान् वजेयित्वा जीवः शरीरप्रमाण इत्ययः॥ १७६ ॥ अथ केचन नैयायिकादयः जीवस्य सर्वंगतस्वं प्रतिपादयन्ति, तनिषेधपर सूत्रमाचष्टे
सब्ब-गओ जदि जीवो सम्वत्थ वि दुक्ख-सुक्ख-संपत्ती ।
जाइज ण सा दिट्ठी णिय-तणु-माणो तदो जीवो ॥ १७७ ।। [छाया-सर्वगतः यदि जीवः सर्वत्र अपि दुःखसौख्यसंप्रातिः । जायते न सा दृष्टिः निजतनुमानः ततः जीवः । भो नैयायिकाः, यदि चेत् जीवः, सर्वगतः सर्वव्यापकः, "एक एव हि भूतारमा देहे देहे व्यवस्थितः । एकथा बहुधा नैव दृश्यते जलफुण्डवत् ॥” इति जीवस्य व्यापकत्वम् अङ्गीक्रियते तहि सर्वत्रापि खशरीरेऽपि खप्रदेशवत् परप्रदेशेऽ सखदःखसंपत्तिः सुखदुःखसंप्राप्तिजोयते उत्पद्यते । यथा खशरीरे जीवस्य सुखदुःखावाप्तिः तथा परशरीरेऽपि भवत नाम को दोषः । सा. दिवाण, परशरीरसुखदुःखसंपतिः प्रत्यक्षादिप्रमाणतः दृष्टा न । तदो ततः कारणात (खशरीरखशरीरे मुखदुःखानुभवनात् जीवः निजतनुप्रमाणः खकीयशरीरप्रमाणः खकीयदेहमात्र इत्यर्थः ॥१७॥
नयाथिकाख्यादए: अर्थवतरभतेन शादेन जीवं जानिन निमदन्ति तभिषेधमाह
बराबर है । आशय यह है कि समुद्धात दशामें तो आत्मप्रदेश शरीरसे बाहर भी फैले रहते हैं, अतः उस समय जीव अपने शरीरके बराबर नहीं होता । समुद्रात दशाको छोड़कर जीव अपने शरीर के बराबर होता है ।। १७६ ॥ नैयायिक वगैरह जीवको व्यापक मानते हैं । उनका निषेध करनेके लिये गाया कहते हैं । अर्थ-यदि जीव व्यापक है तो इसे सर्वत्र सुखदुःखका अनुभव होना चाहिये। किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता । अतः जीव अपने शरीरके बराबर है ॥ भावार्थ-हे नैयायिकों । यदि आप जीवको व्यापक मानते हैं; क्यों कि ऐसा कहा है "एक ही आत्मा प्रत्येक शरीरमै वर्तमान है। और यह एक होते हुए भी अनेक रूप दिखाई देता है। जैसे एक ही चन्द्रमा अनेक जलाशयोंमें प्रतिविम्बित होनेसे अनेक दिखाई देता है।" तो जैसे जीवको अपने शरीरमें होनेवाले सुखदुःखका अनुभव होता है वैसे ही पराये शरीरमें होने वाले सुखदुःखका भी अनुभव उसे होना चाहिये । किन्तु यह बात प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे सिद्ध है कि पराये शरीरमें होनेवाले सुखदुःखका अनुभव जीवको नहीं होता, बल्कि अपने शरीरमें होनेवाले सुखदुःखका ही अनुभव होता है । अतः जीव अपने शरीरके ही बराबर है | अन्य मोंमें जीवके विषयमें जुदी जुदी मान्यताएँ है। कोई उसे एक मानकर व्यापक मानता है, और कोई उसे अनेक मानकर व्यापक मानते हैं। नैयायिक, वैशेषिक वगैरह जैनोंकी तरह प्रत्येक शरीरमें जुदी जुदी आत्मा मानते हैं, और प्राश्येक मात्माको व्यापक मानते हैं । ब्रह्मवादी एक ही आत्मा मानते हैं और उसे व्यापक मानते हैं। ऊपर टीकाकारने जो चन्द्रमाका दृष्टान्त दिया है वह प्रामवादियोंके मतसे दिया है। जैसे एक चन्द्रमा अनेक जलपात्रों में परछाईके परनेसे अनेक रूप दिखाई देता है वैसे ही एक श्रात्मा अनेक शरीरोंमें व्याप्त होनेसे अनेक प्रतीत होता है । इसपर जैनोंकी यह आपत्ति है कि यदि आत्मा व्यापक और एक है तो सब शरीरोंमें एक ही आत्मा व्यापक दुआ। ऐसी स्थितिमें जैसे हमें अपने शरीरमें होनेवाले सुखदुःखका अनुभव होता है वैसे ही अन्य शरीरोंमें होनेवाले सुख दुःसका
एम मोरन