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________________ ११६ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० १७६ कामसमुंद्वातः । २ ) ( मूलशरीरमत्यक्त्वा किमपि विकुर्वयितुमात्मप्रदेशानां बहिर्गमन मिति विकुर्वणासमुद्रातः स तु विष्णुकुमारादिवस महणा देवानां च भवति । ३ ( मरणान्तसमये मूलशरीरमत्यक्त्वा यत्र कुत्रचित् कदमायुस्तप्रवेशं स्फुटितुम् आत्मप्रवेशानां महिर्गमन मिति मारणान्निपि स्यात् ॥ (खस्य मनो ऽनिष्टजनकं किंचित्कारणान्तरमवलोक्य समुत्पन्न कोषस्य संयमनिधानस्य महामुनेर्मूलशरीरमत्यज्य सिन्दूरथुप्रभः पीत्वेन द्वादशयोजन प्रमाणः १२ सूच्य कुलसंख्येयभागो भूलविस्तारः २ नवयोजनाप्रविस्तारः ९ कालाकार உ ger: वामस्कन्धानिर्गत्य वामप्रदक्षिणेन हृदयनिहितं विरुद्ध वस्तु भस्मसास्कृल तेनैव संयमिना सह च भस्म व्रजति, द्वौपायभवत् । अस्रावशुभस्तेजः समुद्घातः । ठीकं व्याधिदुर्भिक्षादिपीडितमवलोक्य समुत्पञ्चकृपस्य परमसंयमनिधानस्य महर्षेर्मूलशरीरमत्यज्य शुभ्राकृतिः प्रागुक्तदेदप्रमाणः दीर्घयो १२ । सू २ वि. यो. ११९ पुरुषो दक्षिणस्कन्धानिर्गत्य Q2. दक्षिणप्रदक्षिणेन व्याधिदुर्भिक्षादिकं स्फेटयित्वा पुनरपि स्वस्थाने प्रविशति । भसौ शुभरूपस्तेजः समुद्वातः । "समुत्पलपदपदार्थधान्तेः परमर्द्धिसंपन्नस्य महर्षेः मूलशरीरमत्यज्य शुद्धस्फटिकाकृतिः एकदस्तप्रमाणः पुरुषो मस्तकमध्यानिर्गत्य यंत्र कुत्रचिदन्तर्मुहूर्तमध्ये केवलज्ञानिनं पश्यतस्तदर्शनात् च खाश्रयस्य मुनेः पदपदार्थनिवयं समुत्पाद व्यापक कैसे है ? समाधान क्योंकि उसमें अवगाहन शक्ति है । शङ्का - अवगाहन शक्ति क्यों हैं ? समाधान - शरीर नाम कर्मका उदय होनेसे आत्मामें संकोच और विस्तार धर्म पाया जाता है। जैसे दीपकको यदि घड़े घड़िया या सकोरे वगैरह छोटे बर्तनोंसे ढक दिया जाये तो वह अपने संकोच खभावके कारण उसी बर्तनको प्रकाशित करता है । और यदि उसी दीपकको किसी बड़े बरतनसे ढाक दिया जाये या किसी घर कौरइमें रखदिया जाये तो वह फैलकर उसीको प्रकाशित करता है। इसी तरह आत्मा निगोदिया शरीर पानेपर सकुचकर उतना ही होजाता है और महामत्स्य वगैरहका बच्चा शरीर पानेपर फैलकर उतना ही बड़ा होजाता है । तथा वेदना समुद्रात, कषाय समुद्रात, विक्रिया समुद्वात, मारणान्तिक समुद्रात, तैजस समुद्रात, आहारक समुद्धात और केवल समुद्धात इन सात समुद्धातों को छोड़कर जीव अपने शरीरके बराबर है। मूल शरीरको न छोड़कर आरमप्रदेशोंके बाहर निकलनेको समुद्रात कहते हैं। तीन कष्टका अनुभव होनेसे मूलशरीरको न छोड़कर आत्मप्रदेशोंके बाहर निकलने को वेदना समुद्धात कहते हैं । तीव्र कषायके उदयसे मूल शरीरको न छोड़कर परस्पर में एक दूसरेका घात करनेके लिये आत्मप्रदेशोंके बाहर निकलनेको कषाय समुद्रात कहते हैं। संग्राम में योद्धा लोग क्रोधमें आकर लाल लाल आँखे करके अपने शत्रुको ताकते हैं यह प्रत्यक्ष देखा जाता है, यही कषाय समुद्घातका रूप हैं । कोई भी विक्रिया करते समय मूल शरीरको न छोड़कर आत्मप्रदेशोंके बाहर निकलनेको विक्रिया समुद्रात कहते हैं । तवोंमें शंका होनेपर उसके निश्चयके लिये या जिनालयोंकी वन्दनाके लिये छठे गुणस्थानवर्ती मुनिके मस्तकसे जो पुतला निकलता है और केवली या श्रुतकेवलीके निकट जाकर अथवा जिनालयोंकी वन्दना करके लौटकर पुनः मुनिके शरीर में प्रविष्ट होजाता है वह आहारसमुद्रात है। जब केवल की आयु अन्तर्मुहूर्तमात्र शेष रहती हैं और शेष तीन अघातिया कर्मों की स्थिति उससे अधिक होती है तो मिना भोगे तीनों कम की स्थिति आयुकर्मके बराबर करनेके लिये दण्ड, कपाट, मचानी, और लोकपूरण रूपमें केवली भगवान्, अपनी आत्माके प्रदेशों को सब लोकमें फैला देते हैं उसे केवळी समुद्रात कहते हैं। इन सात समुद्रातोको छोड़कर जीन अपने शरीरके - '
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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