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________________ 1 -tee] १०. लोकानुप्रेक्षा १२५ [ छाया - जीवः भवति कर्ता सर्वकर्माणि करोति यस्मात् । कालादिलब्धियुक्तः संसारं करोति मोक्षं च ॥ ] जीवः शुद्धनिश्चयन येनादिमध्यान्तवर्जितः स्वपर प्रकाशकः अविनश्वर निरुपाधिशुद्धचैतन्यलक्षण निश्चय प्राणैः यद्यपि जीवति तथाप्यशुद्धन येनानादि कर्मबन्धवशाद शुद्ध द्रव्यभावप्राणजनिति इति जीवः । तथा करोति कर्ता भवति शुभाशुभक निष्पादकः स्यात् । कुतः । यस्मात् सर्वकर्माणि कुर्वते । हायेन घटपटलकुटशकट गृहहीपुत्रपौत्रासिम षिवाणिज्यातीन् सर्वकार्याणि ज्ञानावरणादिशुभाशुभकर्माणि शरीर त्रयस्य पर्याप्तीश्च करोति औवः विदधाति । निश्रयनयेन निःक्रिय टंकोरकीर्णशाय के खभावोऽयं जीवः । तथानन्तचतुष्टयस्य कर्ता च पुनः संसारे कुणदि संति करोति प्रय १ क्षेत्र २ काल ३ भव ४ भाव ५ मेदभिनं पचविधं विदधाति सृजति च । पुनः एवंभूतो जीवः कर्माविष्टः अपु चतुर्थ हो, मत्र मनुष्य पर्याय हो, और मासे विशुद्ध परिणामवाला हो । तथा क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्यलब्धि और अधःकरण, अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण रूप पांच लब्धियोंसे युक्त होना चाहिये। ऐसा होनेपर वही जीव कर्मोंका क्षय करके संसारसे अथवा कर्मबन्धनसे छूट जाता है। जो जिये अर्थात् प्राणधारण करे उसे जीव कहते हैं। प्राण दो तरह के होते हैं - एक निश्चय प्राण और एक व्यवहार प्राण | जीव के निश्चय प्राण तो सत्ता, सुख, ज्ञान और चैतन्य हैं। और व्यवहार प्राण इन्द्रिय, बल, आयु, और श्रासोच्छ्वास हैं। ये सब कर्मजन्य हैं, संसारदशामें कर्मबन्धके कारण शरीर के संसर्गसे इन व्यवहार प्राणों की प्राप्ति होती है । और कर्मबन्धन से छूटकर मुक्त होनेपर शरीरके न रहनेसे ये व्यवहार प्राण समाप्त होजाते हैं और जीवके असली प्राण प्रकट हो जाते हैं। यह जीव निश्चय नयसे अपने भावोंका कुर्ता है क्योंकि वास्तव में कोई भी द्रव्य पर भावोंका कर्ता नहीं हो सकता । किन्तु संसारी जीवके साथ अनादि कालसे कर्मोंका संबंध लगा हुआ है। उन कर्मोंका निमित्त पाकर जीवके विकाररूप परिणाम होते हैं । उन परिणामोंका कर्ता जीव ही है इस लिये व्यवहारसे जीवको कमोंका कर्ता कहा जाता है। सो यह संसारी जीव अपने अशुद्ध भावोंको करता है उन अशुद्ध भावोंके निमित्तसे नये कर्मोका बन्ध होता है। उस कर्मबन्धके कारण उसे चतुर्गतिमें जन्म लेना पड़ता है। जन्म लेनेसे शरीर मिलता है। शरीर में इन्द्रियां होती हैं । इन्द्रियों से वह इष्ट अनिष्ट पदार्थोंको जानता है, उससे उसे राग द्वेष होता है । रागद्वेषसे पुनः कर्मबन्ध होता है । इस तरह संसाररूपी चक्र में पड़े हुए जीवके यह परिपाटी तब तक इसी प्रकार चलती रहती है जब तक काल लब्धि नहीं आती। जब उस जीवके संसारमें भटकनेका काल अपुगल परावर्तन प्रमाण शेष रहता है तब वह सम्यक्त्व ग्रहण करनेका पात्र होता है। सम्यक्ती प्राप्ति के लिये पांच लब्धियोंका होना जरूरी है । वे पांच लब्धियां हैं- क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्य लब्धि और करणलब्धि । इनमें से चार लब्धियां तो संसारमें अनेक बार होती हैं, किन्तु करण लब्धि भव्यके ही होती है और उसके होने पर सम्यक्त्व अवश्य होता है । अप्रशस्त ज्ञानावरणादि कर्मोंका अनुभाग प्रतिसमय अनन्तगुणा घटता हुआ उदयमें आवे तो उसे क्षयोपशम लब्धि कहते हैं। क्षयोपशम लब्धिके होनेसे जो जीवके साता आदि प्रशस्त प्रकृतियोंके बन्धयोग्य धर्मानुरागरूप शुभ परिणाम होते हैं उसे विशुद्धि लब्धि कहते हैं । छः द्रव्यों और नौपदार्थों का उपदेश करने वाले आचार्य वगैरह से उपदेशका लाभ होना देशना लब्धि है। इन तीन छवियोंसे युक्त जीव प्रतिसमय विशुद्धतासे बर्धमान होते हुए जीवके आयुके सिवा शेष सात कमकी स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी मात्र शेष रहती है तब वह उसमेंसे संख्यात हजार सागर
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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