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________________ स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा (दीसंति जत्थ अत्था जीवादीया स भष्णदे' लोओ) तस्स सिहरम्मि सिद्धा अंत वीणाति ॥ १२९ ॥ [ गांo १२१-. [ छाया-दृश्यन्ते यत्र अर्थाः जीवादिकाः स भव्यते लोकः । तस्य शिखरे सिद्धाः अन्तविहीनाः विराजन्ते ॥ ] स लोकः भायते (यत्र जीवादिकाः अर्थाः जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालरूपपदार्थाः द्रव्याणि षट् दृश्यन्ते लोक्यन्ते इति स लोकः कथ्यते सर्वज्ञैः । तस्य लोकस्य चिसरे तनुवातमध्ये सिद्धाः सिद्धपरमेष्ठिनः द्रव्यभावनो कर्मरहिता निरञ्जनाः परमात्मानः सम्यक्त्वायष्टगुणोपेताः विराजन्ते शोभन्ते । कथंभूतास्ते सिद्धाः । अन्तविहीना विनाशरहिताः, अथवा अनन्तानन्तमानोपेताः सन्ति ॥ १२१ ॥ अत्र च कैः कैभूतो लोक इति चेदुच्यते एदिएहिं भरिदो पंच- पयारेहिं सधदो लोओ । वि तसा ण बाहिरा होंति सबत्थ ।। तस - गाडी १२२ ।। [ छाया-एकेन्द्रियैः भृतः पञ्चप्रकारैः सर्वतः लोकः । त्रसनायाम् अपि सा न बायाः भवन्ति सर्वत्र ॥ ] लोकः त्रिभुवनम्, सर्वतः श्रेणिघने, निचत्वारिंशदधिकत्रिशत ३४३ रजुप्रमाणे पश्चप्रकारैः एवविधैः एकेन्द्रियैः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पति कामिकै जीवैर्भूतः । तर्हि असाः क तिष्ठन्तीति चेत्, सनायामपि । तस्यैव लोकस्य मध्ये पुनरुदूखलस्य मध्याधो मागे छिद्रे कृते सवि निक्षिप्तवंशनलिकेव चतुः कोण । त्रसनाही भवति । सा चैकरज्जू विष्कम्भा चतुर्दशरज्यत्सेधा विज्ञेया तस्यां त्रसनायामेव श्रसाः द्विचतुः पखेन्द्रिया जीषा भवन्ति तिष्ठन्ति ण बाहिरा क्षैति " तुलना में एक लाख योजन ऐसेही हैं, जैसे पर्वतकी तुलना राई । अतः उन्हें अलग नहीं किया है । यथार्थमै ऊर्ध्वलोकी ऊँचाई एक लाख चालीस योजन कम सातराजू, जाननी चाहिये ॥ १२० ॥ लोकशब्दकी निरुक्ति कहते हैं । अर्थ- जहाँपर जीव आदि पदार्थ देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । उसके शिखरपर अनन्त सिद्धपरमेष्टी विराजमान हैं । भावार्थ-'लोक' शब्द 'लु' धातुसे बना है, जिसका अर्थ देखना होता है । अतः जितने क्षेत्रमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये छहों द्रव्य देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । [ "धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यन्ते स लोकः ।" सर्वार्थ०, पृ. १७६] लोकके मस्तक पर तनुवातबलय में कर्म और नोकर्मसे रहित तथा सम्यक्त्व आदि आठ गुणोंसे सहित सिद्धपरमेष्ठी विराजमान हैं । जो अन्तरहित- अविनाशी हैं, अथवा जो अन्तरहितअनन्त हैं ॥ १२१ ॥ जिन जीवोंसे यह लोक भरा हुआ है, उन्हें बतलाते हैं । अर्थ-यह लोक पाँच प्रकार के एकेन्द्रिय जीवोंसे सर्वत्र भरा हुआ है । किन्तु सजीव प्रसनाली में ही होते हैं, उसके बाहर सर्वत्र नहीं होते । भावार्थ- पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अभिकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक, ये पाँच प्रकारके एकेन्द्रिय जीव ३४३ राज प्रमाण सभी लोकमें भरे हुए हैं । किन्तु त्रस अर्थात् दोइन्द्रिय, इन्द्रिय, चौइन्द्रिय, और पश्चेन्द्रिय जीव प्रसनालोंमें ही पाये जाते हैं । उदूखल [ कोशकारोंने उदूखलका अर्थ ओखली और जुगुलवृक्ष किया है । यहा वृक्ष लेना ठीक प्रतीत होता है, क्योंकि त्रिलोकप्रज्ञप्ति तथा त्रिलोकसार में बसनालीकी उपगा वृक्षके सार अर्थात् छाल वगैरह के मध्य में रहनेवाली लकड़ी से दी है। अनु० ] के बीच में छेदकरके उसमें रखी हुई बाँसकी नलीके समान लोक मध्यमें चौकोर त्रसनाली है। उसीमें सजीव रहते हैं। [उपपाद और मारणान्तिक समुद्धात के सिवाय त्रसजीव उससे बाहर नहीं रहते हैं "उववादमारणंतियपरिषद तसमुज्झिऊण सेसतसा । तसणालिबाहिर म्हि य १ भण्णा । २ ल म स ग विरायंति ३ अनु वा अनू इति मूलपाठः । ४ ब स दिहि । ५ व नाडिए । •
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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