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________________ १०. लोकानुप्रेक्षा समस्य, अनामय पर्व: : उपवादारण सिफरिणतत्रसान् विहाय असा भवन्धीलःपपादरा ति सम्पत्य इति पाठे सर्वत्र लोके वादराः स्यूलाः पृथ्वीकायिकाइयवसाय न सन्ति । 'भापारे लामो प्रतिक बचमात् । ननु सनाख्या सर्वत्र प्रसास्तिष्ठन्ति इति चेस्पाइ । असनाच्या वसा इति सामान्यवचनम् । विशेषाम त्रिलोकप्रशती प्रोतं च । 'लोयबहुमजावेसे सम्मि सारं प रज्युपदरजुदा । तेरसरजस्सेदा किंधूणा होदि तमगाली ।' यि ति जिणेहिं णिदिट्ट ॥ १९२ ।।" गो० जीयकाण्ड ] सनालीसे बाहरका कोई एकेन्दिय जीव वसनाभकर्मका बन्ध करके, मृत्युके पश्चात् सनालीमें जन्म लेने के लिये गमन करता है, तब उसके असनामकर्मका उदय होने के कारण उपपादकी अपेक्षासे त्रसजीव सनालीके बाहर पाया जाता है। तथा, जन कोई उसजीव प्रसनालीसे बाहर एकेन्द्रियपर्यायमें जन्म लेनेसे पहले मारणान्तिक समुद्रात करता है, तब उसपर्यायमें होते हुएमी उसकी आत्माके प्रदेश प्रसनालीके बाहर पाये जाते हैं । 'ण बाहिरा होति सम्वत्थ के स्थानमें 'ण बादरा होति सम्वत्थ' ऐसा भी पाठ है। इसका अर्थ होता है कि बादर जीव अर्थात् स्थूल पृथ्वीकायिक बगैरह एकेन्द्रिय जीव तथा असंजीव सर्वलोकमें नहीं रहते हैं। क्योंकि जीवकाण्डमें लिखा है-'स्थूलजीव आधारसे ही रहते हैं। ['आधारे थूलाओ' ॥१९३॥ ] शङ्काक्या असनालीमें सर्वत्र प्रसजीव रहते हैं। उत्तर-सनालीमें प्रसजीव रहते हैं, यह सामान्यकमन है। त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें इसका विशेष कपन किया है। [*लोयबहुमजादेसे तरुम्मि सारं व रजुपदरजुदा । तेरस रज्जुस्सेझा,किंचूणा होदि तसणाली ॥ ६ ॥" वि. अधि.] उसमें कहा है-“वृक्षमें उसके सारकी तरह, लोकके ठीक मध्यमें एक राजू लम्बी, एक राजू चौड़ी और कुछ कम तेरह राजू ऊँची प्रसनाली है ।" शका-सनालीको कुछ कम तेरइ राजू ऊँची कैसे कहा है ! उत्तर-सातवी महातमःप्रभा नामकी पृथिवी आठ हजार योजनकी मोटी है [देखो, त्रिलोकसार गा. १७१ की टीका । उसके ठीक मध्यमें नारकियोंके श्रेणीबद्ध बिले बने हुए हैं । उन बिलोंकी मोटाई , योजन है । इस मोटाईको समच्छेद करके पृथिवीकी मोटाईमें घटानेसे २४०-२१५५ योजन शेष मचता है। इसका बाधा १.१९९८ योजन होता है । भाग देनेपर ३९९९३ योजन आते हैं। इतने योजनोंके ३१९९१६६६ धनुष होते हैं । यह तो नीचेकी गणना हुई । अब ऊपरकी लीजिये । सर्वार्थसिद्धि विमानसे ऊपर १२ योजनपर ईषत्वाग्भार नामकी आठवीं पृथ्वी है, जो आठ योजन मोटी है । ["तिक्णमुडारूढा इसिपभारा धरहमी रुंदा । दिग्घा इगिसगरजू अडजोयणपमिदवाहला ॥ ५५६ ॥" त्रिलोकसार, अर्थ-'तीनों लोकोंके मस्तकपर आरूढ ईषत्प्रारभार नामकी पाठवीं पृथ्वी है। उसकी चौगाई एक राग लम्बाई सात राज और मोटाई आठ योजन है। १२ योजनके ९६००० धनुष होते हैं। और आठवीं पृथ्वीके ८ योजनके ६४००० धनुष होते हैं। ["कोसाणं दुगमेक्कं देसूणेक्कं च लोयसिहरम्भि। ऊणधणूणपमाणं पणुवीसशहियचारिसयं ॥ १२६ ॥" किलोकसार. अर्य-'लोकके शिखरपर तीनों वातवलयोंका बाहुल्य दो कोस, एक कोस और कुछ कम एक कोस है। कुछ कमका प्रमाण १२५ धनुष है । अतः तीनों वातबल्योंका बाहुल्य ४०००+२०००+१५७५-७५७५ धनुष होता है । क्योंकि एक कोसके २००० धनुष होते हैं।] उसके उपर तीनो वातवलयोंकी मोटाई ७५७५ धनुष है । इन सब धनुषोंका जोड ३२१६२२४१३ धनुष होता है। [अपमाण देहा कोदितियं एकवीसलक्खाणं । वासद्धिं च सहस्सा दुसमा इगिदाल दुर्तिभाया ॥७॥" त्रिलोकप्र०, २ या अधिः ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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