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________________ = ५५ - १२० ] १०. लोकानुप्रेक्षा [ छाया मेरोः अधोभागे सप्तापि रज्जवः भवति अधोलोकः । ऊर्ध्वे ऊर्ध्वलोकः मेरूसमः मध्यमः लोकः ॥ ] मेरोरधस्तनभागे अधोलोकः । सप्तरजुमात्रो भवेत् । तथा हि अधोभागे मेर्वाधारभूता रत्नप्रभाख्या प्रथमा पृथिवी । तस्या अधोऽधः प्रत्येकमेकैकर जुप्रमाणमाकाशं गत्वा यथाक्रमेण शर्करवालुकापड धूमतमोमहातमः संज्ञाः पर भूमयो भवन्ति । तस्माद जुमाले भूमि स्थावरमतं च तिष्ठति । रत्नप्रभाविपृथिवीनां प्रत्येक घनोदधिषानुषाश्रयमाधारभूतं भवतीति विज्ञेयम् । उओ ऊर्ध्वे लोकः, मेरोरुपरिभागे ऋजुपटलमादभ्य त्रैलोक्यशिखरपर्यन्तम् ऊर्ध्वलोकः सप्तरजुमात्रो भवति । मध्यमो लोकः मेरुमः । मेरोरुदयमात्रः लक्षयोजनप्रमाण इत्यर्थः ॥ १२० ॥ लोकशब्दस्य निरुक्तिमाद । करनेपर २८७= १९६ राजू अधोलोकका घनफल होता है। इसी प्रकार ऊोकका मी घनफल निकाल लेना चाहिये । अर्थात् मुख १ राजू, भूमि ५ राज, दोनोंका जोड़ ६ राज, उसका आधा ३ राजू, इस ३ राजूको पद ७ राज से गुणा करनेपर ७४३ = २१ राज, आधे ऊर्ध्वलोकका क्षेत्रफल होता है। इसे उँचाई साढ़ेतीन राजूसे गुणा करनेपर २१४३ = १६७ राज्, आधे ऊर्ध्वलोकका घन फल होता है । इसको दूना करदेने से १४७ राजू पूरे ऊचोकका घन फल होता है । अधोलोक और लोक घन फलों को जोड़ने से १९६+१४७ = ३४३ राजू पूरे लोकका घनफल होता है । गाथामें आये क्षेत्रफल शब्द से वन क्षेत्रफळ ही समझना चाहिये ॥ ११९ ॥ तीनों लोकोंकी उँचाईका त्रिभाग करते हैं । अर्थ- मेरुपर्वतके नीचे सात राजूप्रमाण अशेलोक है । ऊपर ऊर्ध्वलोक है । मेरुप्रमाण मध्य लोक है । भावार्थ- 'मेरु' शब्दका अर्थ 'माप करनेवाला होता है । जो तीनों लोकोंका माप करता है, उसे मेरु कहते हैं । [ “लोकत्रयं मिनातीति मेरुरिति ।" राजवा५पृ. १२७ ] जम्बूद्वीप के बीच में एकलाख योजन ऊँचा मेरुपर्वत स्थित है। वह एक हजार योजन पृथ्वीके अन्दर है और ९९ हजार योजन बाह्रर । [ 'जम्बूद्वीपे महामन्दरो योजनसहखावगाहो भवति नत्रनयतियोजन सहसोच्छ्रायः । तस्याधस्ताधोलोकः । बाहुल्येन तःप्रमाणः तिर्यक्प्रसुतलियेोकः । तस्योपरिष्टादूर्ध्वलोकः । मेहचूलिका चचारिंशयोजनोच्छ्राया तस्या उपरि केशान्तरमात्रे व्यवस्थितमृजुविमानमिन्द्रकं सौधर्मस्य । " सर्वार्थ० पृ. १५७ अनु० ] उसके ऊपर ४० योजनकी चूलिका है। रत्नप्रभा नामकी पहली पृथिवीके ऊपर यह स्थित है। इस पृथिवीके नीचे शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमप्रभा और महातमप्रभा नामकी छह पृथिवीयाँ और हैं। सातवीं पृथिवीके नीचे १ राजूमं निगोदस्थान है। ये सभी पृथिवियाँ घनोदवि, धनत्रा और तनुवात नामके तीन वातवलयोंसे वेष्टित हैं। मेरुसे नीचेका सात राजू प्रमाण यह सब क्षेत्र, अधोलोक कहलाता है। तथा ऊपर सौधर्मस्वर्ग ऋविमान के तलसे लेकर लोकके शिखरपर्यन्त सात राजू, क्षेत्रको ऊर्ध्वलोक कहते हैं । [ मेरुपर्वतकी चूलिका और ऋजुविमान में एक बाल मात्रका अन्तर है ] | सोलह स्वर्ग, नौ ग्रैवेयक, पाँच अनुत्तर तथा सिद्धशिला, ये सब में सम्मिलित हैं । तथा, अधोलोक और ऊर्ध्वलोकके बीच में सुमेरुपर्वत के तलसे लेकर उसकी चूलिकापर्यन्त एक लाख चालीस योजन प्रमाण ऊँचा क्षेत्र मध्यलोक कहलाता है । शङ्का-लोककी ऊँचाई चौदह राजू बतलाई है । उसमें सात राजू प्रमाण अधोलोक बतलाया है और सात राजू प्रमाण ऊर्ध्वक बताया है। ऐसी दशामें मध्यलोककी ऊँचाई एकलाख चालीस योजन अधोलोक में सम्मिलित है या ऊर्ध्वलोक में या दोनोंसे पृथक् ही है ? उत्तर - मेरुपर्वतके तसे नीचे सातराजू प्रमाण अधोलोक है और तलसे ऊपर सातराजू, प्रमाण ऊर्ध्वलोक है । अतः मध्यलोककी ऊँचाई ऊर्ध्व लोक में सम्मिलित है। सात राजूकी
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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