SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १९९[छाया-सप्तैकपोकाः मुले मध्ये तथैव ब्रह्मान्ते । लोकान्ते रजवः पूर्वापरतश्च निस्तारः ॥] लोकस्येसप्याहार्यम् । पूर्वापरतः पूर्वो दिशामाथिल्य पधिमां दिशामाश्रित्य च विस्तारः व्यासः । मूले बिलोकस्याधोभागे पूर्वपश्चिमेन सप्तरजविस्तारः ७ । सधव प्रकारेण मध्ये अधोभागात्कमहानिरूपेग हीयते यावन्मध्य लोके पूर्वापरतः एका एकरजपमाणविखारः। तथव भंते, ततो मध्यलोकादूर्य क्राध्या वर्तते यावद् मालोकान्ते पूर्वपश्चिमेन जुपश्यविस्तारः ५। लोयंते, ततखोवं पुनरपि हीयते गाजलोकान्ते लोकोपरिमभागे पूर्वापरतः एकर जुधमाणविस्तारो ५ भवति ॥ १८ ॥ अथ दक्षिणोत्तरतः कियन्मान इत्युक्त प्राह दक्षिण-उत्तरदो पुर्ण सत्त वि रज्जू हवंति सबत्थ । उर्ल्ड' चउदह र सत्त वि रज्जू घणो लोओ ।। ११९ ॥ [छाग-दक्षिणोत्तरतः पुनः रामाऽपि रज्जवः भवन्ति सर्वत्र । ऊर्थः चतुर्दश रज्जयः समापि रज्जवः घनः लोकः ॥] पुनः दक्षिणोत्तरपार्वमाश्रित्य स चादश १४ रत्सेधपर्यन्तं व्यास आयामः सप्तरजुरेव भवति लोकस्योदयः कियमात्र इति चेदृध्वः चतुर्दशरजूदय रूपः १४ लोको भवति । सर्वलोफस्य क्षेत्रं कियन्मात्रम्। सप्तरजघनः सप्तरबूना घनः त्रिवारगणनम् । 'ग्रिसमाहतिर्धनः' स्यादिति वचनात् । जगच्छ्रेणि 1. धनः ३४३ प्रमाणः सर्वलोकः त्रिशतरजुमात्रः त्रिचत्वारिंशदधिकः ३४३ इत्यर्थः । तावदधोलोकस्य मानमानीयते। 'मुहभूमीजोगदले पदगृषिदे पदघणं होदि।' एकरज्जः १, भूमिस्तु सप्तरजुः तयोर्योगः ८, तइल ४, पदेन सप्तभिः ७, गुणिते २८, वैधेन ७ गुणिते १९६ । एवमूर्यलोकमानमानेतव्यम् १४७ । सर्व इत्यर्थः ३४३ ॥११९ ।। अथ त्रिलोकस्योदयं विभजति मेरास्स हिह-भाएं सस वि रजू होइ अह-लोओ। उद्धवम्मि उड-लोओ मेरु-समो मज्झिमो लोओ ॥ १२० ।। ओर रखकर यदि खड़ा हो तो उसका जैसा आकार होता है, वैसा ही आकार लोकका जानना चाहिये अतः पुरुषका आकार लोकके समान कल्पना करके उसका पूरब-पश्चिम विस्तार इस प्रकार जानना चाहिये । पोंके अन्तरालका विस्तार सातराजू, है । कटिप्रदेशका विस्तार एक राजू है। दोनों हायोंका-एक कोनीसे लेकर दूसरी कोनी तकका-विस्तार पाँच राजू है । और ऊपर, शिरोदेशका विस्तार एक राजू है ॥ ११८ ॥ अब लोकका दक्षिण-उत्तरमें विस्तार कहल्ले हैं। अर्थ-दक्षिण - उत्तर दिशामें सब जगह लोकका विस्तार सात राजू है । उँचाई चौदह राजु है और क्षेत्रफल सात राजूका घन अर्थात् ३४३ राजू है || भावार्थ-पूरब- पश्चिम दिशामें जैसा घटता बढ़ता विस्तार है, वैसा दक्षिणउत्तर दिशा में नहीं है । दक्षिण उत्तर दिशामें सत्र जगह सात राजू विस्तार है । तथा लोककी नीचेसे ऊपर तक उँचाई चौदह राजू है और लोकका क्षेत्रफल सात राजूका धन है । तीन समान राशियोंको परस्परमें गुणा करनेसे बन आता है । अतः सात राजूका घन ७४७४७-३४३ राजू होता है । इस क्षेत्रफलकी रीति निम्न प्रकार है । पहले अधोलोकका क्षेत्रफल निकालते हैं । त्रिलोकसारमें कहा है कि "जोगदले पदगुणिदे फलं घणो वेधगुणिदफदं ॥ ११॥" मुख और भूमिको जोड़कर उसका आधा करो, और उस आधेको पदसे गुणा करदो नो क्षेत्रफल होता है और क्षेत्रफलको उँचाईसे गुणाकरनेपर घन फल होता है । इस रीतिके अनुसार मुख १ राजू, भूमि ७ राज, दोनों को जोडकर ७+१-८ आधा करनेसे ४ होते हैं.। इस ४ राजूको पद-दक्षिण उत्तर विस्तार ७ राजूसे गुणा करनेपर ४x७-२८ राजू क्षेत्रफल होता है । और इस क्षेत्रफलको अधोलोककी उँचाई सात राजूसे गुणा १५ पुगु। २ लसग हवेति। ३ उद[?], ल म ग उद्यो. स दो। ल स ग चउदस, म चपस । ५दय भागे। बवह महो लोड [१], सम हवे अहो लोभो, मवह भह कोइ ।।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy