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________________ 2 -११८] १०. लोकानुप्रेक्षा पर्यायरूपेण परिणमनात लोकस्थापि परिणामं परिणमनं पर्याथरूपेण कथंचित् अनित्यत्वं सपर्यागत्वं च अम्मल चामीहि विद्धि । मनु यत्र नित्यश्वं प्राशुकं तत्रानित्यत्वं कथं विरोधात् इति चेच, वस्तुनः अनेकान्तात्मकत्वं सत्त्वात् । भव द्रव्याणां निष्यत्वेमानित्यत्वेन किं नाम पर्याया इति चेदाइ । जीवद्रव्यस्य नरनारकादि विभागव्यञ्जनपर्यागाः, पुलख शब्दवसीयस्थस्य संस्थान मेदतम छायात पोहयोत सहिताः विभावव्यजनपर्याया भवन्ति । एवमन्येषामपि गम् ॥ ११७ ॥ अथ लोकस्य परपरिक स्थित स्थानम । नविप्रतिपत्तिनिरासार्थमाह सत्ते- पंच-इक्का मूले मज्झे तब बंभंते । लोयं रज्जूओ पुवावरदो' य वित्थारो ॥ ११८ ॥ अत्थपञ्चया वियणपज्जया चावि । तीदाणागदभूदा तावदियं तं इत्रदि द० ॥५५१ ||" अर्थ - एकद्रव्यमें त्रिकालसम्बन्धी जितनी अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याीय हैं, उतना ही द्रव्य है । अर्थात् त्रिकालवर्ती पर्यायोंको छोड़कर द्रव्य कोई चीज नहीं है । अनु० ] शङ्का जो नित्य है, वह अनित्य किसप्रकार हो सकता है ? नित्यता और अनित्यतामें परस्पर विरोध है । उत्तर-वस्तु अनेकधर्मात्मक होती है, क्यों कि वह सत् है । यदि एकवस्तुमें उन अनेक मोंको अपेक्षाभेदके विना योंही मान लिया जाये तो उनमें विरोध हो सकता है। किन्तु भिन्न भिन्न अपेक्षाओंसे विरोधी दिखाई देनेवाले धर्म भी एक स्थानपर बिना किसी विरोधके रह सकते हैं। जैसे, पिता, पुत्र, भ्राता, जामाता आदि लौकिक सम्बन्ध परस्पर में विषी प्रतीत होते हैं । किन्तु भिन्न भिन्न सम्बन्धियोंकी अपेक्षासे यह सभी सम्बन्ध एकही मनुष्य में पाये जाते हैं । एकही मनुष्य अपने पिता की अपेक्षासे पुत्र है, अपने पुत्रकी अपेक्षासे पिता है अपने भाई की अपेक्षासे भ्राता है, और अपने श्वरशुकी अपेक्षासे जामाता है । इसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य द्रव्यरूप से नित्य है, क्योंकि द्रव्यका नाश कभी भी नहीं होता । किन्तु प्रतिसमय उसमें परिणमन होता रहता है, जो पर्याय एकसमय में होती है, वही पर्याय दूसरे समयमें नहीं होती, जो दूसरे समयमें होती है वह तीसरे समय में नहीं होती, अतः पर्यायकी अपेक्षा से अनित्य है । पर्याय दो प्रकारकी होती हैं, एक पर्याय और दूसरी अर्यपर्याय । इन दोनों प्रकारों केमी दो दो भेद होते हैं--स्वभाव और विभाव । जीवद्रव्यकी नर, नारक आदि पर्याय विभाव व्यखनपर्याय है, और पुद्गलद्रव्यकी शब्द, बन्ध, सूक्ष्मता, स्थूलता, आकार, खण्ड, अन्धकार, छाया, धूप, चांदनी वगैरह पर्याय विभावव्यञ्जन पर्याय हैं । [ प्रदेशवस्त्रगुणके विकारको व्यञ्जनपर्याय और अन्य शेष गुणोंके विकारको अर्थपर्याय कहते हैं । तथा जो पर्याय परसम्बन्धके निमित्तसे होती है उसे विभाव, तथा जो परसम्बन्ध के निमित्त विना स्वभावसे ही होती है उसे खभावपर्याय कहते हैं । इम चर्मचक्षुओंसे जो कुछ देखते हैं, वह सब विभाव व्यञ्जन पर्याय है । अनु० ] सारांश यह है कि द्रव्यों के समूहका ही नाम लोक है । द्रव्य नित्य हैं, अतः लोक भी नित्य है । द्रव्य परिणामी हैं, अतः लोक भी परिणामी है ॥ ११७ ॥ अर्थपूरब-पश्चिम दिशामें लोकका विस्तार मूलमें अर्थात् अधोलोकके नीचे सात राजू है । अधोलोकसे ऊपर क्रमशः घटकर मध्यलोकमें एक राजूका विस्तार है । पुनः क्रमशः बढ़कर ब्रह्मलोक स्वर्गके अन्तमें पाँच राजूका बिस्तार है । पुनः क्रमशः घटकर लोकके अन्तमें एकराजूका विस्तार है ॥ भावार्थ - लोक पुरुषाकार हैं। कोई पुरुष दोनों पैर फैलाकर और दोनों हाथोंको कटिप्रदेशके दोनों १ का सत्तेक, म सतिक, ससटेक नग पुष्करपरदो । कार्तिक ८
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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