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लामिकाकियाडमेला
[गा. १९६अण्णोपण-पवेसेण य दवाणं अच्छण हवे लोओ।
दवाणं णिखतो लोयस्स वि मुणहे णिश्चत्तं ॥ ११६ ॥ छाया-अन्योन्यप्रवेशेन व व्याणाम् आसनं भवेत् लोकः। द्रव्याणां नित्यत्वतः लोकस्यापि जानीत नित्यत्वम्॥ लोकः त्रिभुवन भवेत् ।अन्योन्यप्रवेशेन द्रव्याण परस्परप्रवेशेन जीवधुद्गलधर्माधर्माविवस्तूनाम्भाणे स्थितिः अस्तित्व भनेलोकः । ज्याणां जीपुरसमायोकासकालरूपाने शिक्षको दिल्यवान काचित मायात् लोकस्यापि णिवत निस्सरवं कथंचिद्धवत्वं मुमह जानीहि विधि ॥ ११६ । ननु यदि लोकस्य सर्वथा नित्यत्वं तईि स्थावादमतमाः स्यात् इति वदन्तं प्रति प्राह
. परिणाम-सहावादो पडिसमयं परिणमंति दवाणि ।
तेसिं परिणामादो लोयस्स वि मुणहे परिणामं ॥ ११७॥ [छाया-परिणामसभावतः प्रतिसमयं परिणमन्ति द्रव्याणि । तेषां परिणामात् लोकस्यापि जानीत परिणामम् ॥1 द्रव्याणि यथाखिपोयैः देयन्ते द्रवन्ति वा तानीति ख्याणि मीरपुद्रलधोधोकाशकालरूपाणि, प्रदिसमय समय समयं प्रति, परिणमन्ति उत्पादध्ययनौव्यरूपेण परिणमान्ति परिणाम पर्यायान्तरं गच्छन्ति । कुतः। परिणामसभावात् अतीतानागतवर्तमानानन्तपर्यायखभावेन परिणभनात् । वेशं जीवपुद्रलादिवव्याणां परिणामात् परिणमनात् अनेकखभावविभाव॥ ११५ ॥ समस्त आकाशके मध्यमें लोकाकाश है, इत्यादि विशेषताका क्या कारण है, यह बतलाते हैं । अर्थ-व्योंकी परस्परमें एकक्षेत्रावगाहरूप स्थितिको लोक कहते हैं । द्रव्य नित्य है, अतः लोकको भी नित्य जानो। भावार्थ-जितने आकाशमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये • छहों द्रव्य पाये जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । छहों द्रव्य अनादि और अनन्त हैं, अतः लोकको भी
अनादि और अनन्त जानना चाहिये [त्रिलोकसारमें भी लिखा है-"लोगो अकिहिमो खलु अगाइमिहणो सहावणिवत्तो। जीवाजीवहिं फुदो सन्वागासवयवो णिचो ॥ ४॥" अर्थ-लोक अकृत्रिम है, अनादि अनन्त है, खभावसे निष्पन्न है, जीव-अजीव द्रज्योंसे भरा हुआ है, समस्त, आकाशका अ है और निस है। ] शङ्का यदि लोक सर्वथा नित्य है तो स्याद्वादमतका भा होता है, क्योंकि स्याद्वादी किसी भी वस्तुको सर्वथा निल नहीं मानते हैं। इसका उत्तर ॥१९६॥ अर्थ-परिणमन करना वस्तुका खभाव है अतः द्रव्य प्रतिसमय परिणमन करते हैं । उनके परिणमनसे लोकका भी परिणमन जानो। भावार्थ-जो पर्यायोंके द्वारा प्राप्त किये जाते हैं, या पर्यायोंको प्राप्त करते हैं, उन्हें द्रव्य कहते हैं । जीव, पुनल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, इन छहों द्रव्योंमें उत्पाद, व्यय और घाव्य रूपसे प्रतिसमय परिणमन होता रहता है। प्रतिसमय छहों द्रव्योंकी पूर्व पूर्व पर्याय नष्ट होती हैं, उत्तर उत्तर पर्याय उत्पन्न होती है, और द्रव्यता व रहती है । इस तरह भूत, भविष्यत् और वर्तमानकालमै अनन्तपर्यायरूपसे परिणमन करना द्रव्यका खभाव है। जो इस तरह परिणमनशील नहीं है, वह कमी सत् हो ही नहीं सकता। अतः निल होनेपर भी जीव, पुद्गल आदि द्रव्य अनेक स्वभावपर्याय तथा विभावपर्यायरूपसे प्रतिसमय परिणमन करते रहते हैं । परिणमन करना उनका स्वभाव है । खभावके बिना कोई वस्तु स्थिर रह ही नहीं सकती। उन्हीं परिणामी द्रव्योंके समुदायको लोक कहते हैं । अतः जब द्रव्य परिणमनशील हैं तो उनके समुदायरूप लोकका परिणामी होमा सिद्ध ही है, अतः द्रव्योंकी तरह लोकको भी परिणामी नित्य जानना चाहिये । [गो० जीवकाण्डमें द्रव्योंकी स्थिति बतलाते हुए लिखा है-"एयदवियम्मिले
१. स ग मवे। २ व मुगादि। ३ग णिचिन्तं । ४ क तचाणि। ५अ मुणदि । म यति ।