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________________ 1. १०. लोकातुप्रेक्षा १०. लोकानुप्रेक्षा सिद्धं युद्धं जिनं भत्ता लोकालोकप्रकाशकम्। पक्ष्ये व्याख्यो समासेनानुप्रेक्षाया जगत्स्थितेः ॥ अथ लोकानुप्रेक्षां व्याख्यायमानः श्रीस्वामिकार्तिकेयो लोकाकाशस्वरूपं प्ररूपयतिसम्रायासमणंतं' तस्स य बहु-मज्झ-संठिओ लोओ । सो केण वि व कओ ण य धरिओ हरि-हरादी हिं ॥ ११५ ॥ I [ छाया - सर्वाकाशमनन्तं तस्य च बहुमध्यसेस्थितः लोकः । स केनापि नैव कृतः न च श्रुतः हरिहरादिभिः ॥ ] सर्वाकाशं लोकाकाशम् अनन्तम् अनन्तानन्तं द्विकवारानन्तमानं सर्वे नमोऽस्ति । तस्य च सर्वाकाशस्य बहुमध्य संस्थितो लोकः । महुमध्ये अनन्तानन्ताकाशबहुमध्यप्रदेशे सप्तधनरज्जुमात्रे सम्यक्प्रकारेण स्थितः संस्थितः लोक्यते इति लोकः । मनोदधिधन वातनुवाताभिधानकारात्रयवेष्टितः लोकः जगत् । तथा त्रैलोक्यसारे एकमप्युक्तमस्ति । 'बहुमदेसभागन्हि' । सेनायमर्थः । बहुमध्यदेशभागे महव अतिशयितारचनीकृताः असंख्याताः वा आकाशस्य मध्यदेशा यस्य स बहुमन्यदेशः स वासौ भागश्च खण्डः तस्मिन् बहुमप्यवेशभागे अथवा मइदः अष्टौ गोखनाकाराः आकाशस्य मध्यदेशे यस्य स तयोस्तस्मिन् लोकोऽस्ति । नतु स लोकः केनापि ब्रह्मादिना कृतो भविष्यति, तच्छङ्कानिरासार्थमाह । सो के विग्रकभ, स लोकः केनापि महेश्वरादिना कृतो नैव । केचन एवं वदन्ति । शेषीभूतैईरिहर । दिभिर्भूतः इति । तच्छङ्कानिरासार्थमाइ । ण य धरिओ हरिहरावी हिं न च धृतो हरिहरादिभिः, हरिर्विष्णुः हरो महेश्वरः आदिशब्दात् कपिखपरिकल्पितः प्रकृतिः ब्रह्मा च तो न च ॥ ११५ ॥ अथ सर्वाकाशे लोकाकाश इति विशेषः कृत इति चंदाहभव लोकानुप्रेक्षाका व्याख्यान करते हुए श्री स्वामिकार्त्तिकेय लोकाकाशका खरूप कहते हैं । अर्थ - यह समस्त आकाश अनन्तप्रदेशी है । उसके ठीक मध्य में भले प्रकारसे लोक स्थित है । उसे किसीने बनाया नहीं है, और न हरि, हर बगैरह उसे धारण ही किये हुए हैं । भावार्थ-लोकका क्षेत्रफल सातराजुका धन अर्थात् ३४३ राजु प्रमाण है। अतः आकाशके बीचोबीच ३४३ राजु क्षेत्रमें यह जगत स्थित है। उसे चारों ओरसे घनोदवि घनवात और तनुवात नामकी तीन वायु घेरे हुए हैं। वे ही लोकको धारण करती हैं। त्रिलोकसार ग्रन्थ में 'बहुमदेसभा गम्हि' लिखा है, और उसका अर्थ किया है- 'आकाशके असंख्यात प्रदेशवाले मध्यभाग में, क्योंकि लोकाकाश- जितने आकाशमें ठोक स्थित है आकाशका उतना भाग- असंख्यातप्रदेशी है। इसका दूसरा अर्थ इस प्रकार भी किया है- 'बहु' अर्थात् 'आठ गौके स्तनके आकारके आकाश मध्य प्रदेश जिस भागमें पाये जाते हैं, उस भागमें । आशय यह है कि लोकके ठीक मध्य में सुमेरुपर्वतके नीचे गौके स्तनके आकार आठ प्रदेश स्थित हैं । जिस भाग में वे प्रदेश स्थित हैं, वही लोकका मध्य है। और जो लोकका मध्य है, वही समस्त आकाशका मध्य है, क्योंकि समस्त आकाशके मध्यमै लोक स्थित है, और लोकके मध्यमें वे प्रदेश स्थित हैं। अन्य दार्शनिक मानते हैं कि यह जगत महेश्वर वगैरहका बनाया हुआ है, और विष्णु आदि देवता उसे धारण किये हुए हैं। उनका निराकरण करनेके लिये प्रन्थकार कहते हैं कि इस जगतको न किसीने बनाया है और न कोई उसे धारण किये हुए है । वह अकृत्रिम है और वायु उसको धारण किये हुए है। [ त्रिलोकसारमें लोकका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है--" सव्यागासमत तस्स य बहुमज्झतभागन्छि । लोगोसंखपदेसो जगसेदिषणप्पमाणो हु ॥ ३ ॥" अर्थ - सर्व आकाश अनन्तप्रदेशी है, उसके 'बहुमध्यदेश भागमें' लोक है। वह असंख्यातप्रदेशी है, और जगतश्रेणीके घन प्रमाण ३४२ राजु है । अनु० ] सम्मायाक्षम । म म ठिक छ ग संठियो ससद्धियो । म यस गणेय । - ११५] ५५
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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