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________________ १५४ खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० २१२परिणमिण्यमाणः (१) सन सामग्रीधु जिनाचारसतधारणसामायिकधर्मध्यानादिलक्षणास प्रवर्तमानः पश्चात् देवादि. पर्यायान् समाश्यति, तथा कविजीवः नरनारकतिर्मवपर्याय परिणमिष्यमाणः सन् पुण्यपापादिखातम्यसनबहारम्भपरिप्रहादिमायाकूटकपटच्छलच्छयादिसामग्रीषु प्रवर्तमानः पात् नरनारकतिर्थक्पर्यायान् प्रागोतीत्यर्थः ॥ २१॥ अथ जीवः स्वदच्यखझेत्रस्वकालखमावेषु स्थितः एव कार्य विदधाति इत्यावेदयति स-सख्यस्थी जीवो कर्ज साहेदि वट्टमाणं पि । खेते एक्कम्मि ठिदो णिय-दचे संठिदो घेव ॥ २३२ ॥ छाया-खखरूपस्थः जीवः कार्य साधयति वर्तमानम् अपि । क्षेत्रे एकस्मिन् स्थितः निजद्रव्ये संस्थितः ।। जीवः इन्द्रियादिन्यप्राणः सुखसत्ताचैतन्यबोधभावप्राणेश्वाजिनीवत् जीवति जीविष्यतीति जीवः कार्य नूतनभूतमनरमारकादिपर्याय वर्तमानम् , अपिशब्दादतीतानागतंच, कार्य साधयति निर्मिनोति निर्मापयति निष्पादयतीत्यर्थः । कथंभूती जीवः । निजे द्रव्ये संस्थित्तः वेतनाविष्टस्वारमध्ये स्थिति प्राप्तः सन् नात्मान्तरद्रव्ये संस्थित एवकारार्थः । एकस्मिक पर्यायोंको उत्पन्न करता है । जैसे, कोई जीव देव पर्यायरूप परिणमन करनेके लिये पहले समीचीन व्रतोंका धारण, सामायिक, धर्मध्यान आदि सामग्रीको अपनाता है पीछे वर्तमान पर्यायको छोड़कर देवपर्याय धारण करता है । कोई जीव नारकी अथवा तिर्यञ्च पर्यायरूप परिणमन करनेके लिये पहले सात व्यसन, बहुत आरम्भ, बहुत परिग्रह, मायाचार कपट छल छम वगैरह सामग्रीको अपनाता है पीछे नारकी अथवा तिर्यश्च पर्याय धारण करता है । इस तरह अनादि निधन जीवमें भी कार्यकारणभाव बन जाता है ।। २३१ ।। आगे कहते हैं कि जीव खद्रव्य, खक्षेत्र, खकाल और खभावमें स्थित रहकर ही कार्यको करता है । अर्थ-स्वरूप में, स्वक्षेत्रमें, खद्रव्यमें और खकालमें स्थित जीव ही अपने पर्यायरूप कार्यको करता है ।। भावार्थ-जो इन्द्रिय आदि द्रव्यप्राणोंसे या सुख सत्ता चैतन्य और ज्ञानरूप भाव प्राणोंसे जीता है, जिया था अथवा जियेगा उसे जीव कहते हैं । वह जीव नवीन नवीन नर नारक आदि रूप वर्तमान पर्यायका और 'अपि' शब्दसे अतीत और अनागत पर्यायोंका कर्ता है । अर्थात् वह खयं ही अपनी पर्यायोंको उत्पन्न करता है। किन्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमें स्थित होकर ही जीव अपनी पर्यायको उत्पन्न करता है । अर्थात् अपने चैतन्य स्वरूप आत्मद्रव्यमें स्थित जीव ही अपने कार्यको करता है, आत्मान्तरमें स्थित दुआ जीव स्वकार्यको नहीं करता । अपनी आत्मासे अवष्टब्ध क्षेत्रमें स्थित जीवही खकार्यको करता है, अन्य क्षेत्रमें स्थित जीव खकार्यको नहीं करता । अपने ज्ञान, दर्शन, मुख, सत्ता आदि खरूपमें स्थित जीवही अपनी पर्यायको करता है, पुद्गल आदि खभावान्तरमें स्थित जीव अपनी पर्यायको नहीं करता । तथा स्वकालमें वर्तमान जीव ही अपनी पर्यायको करता है, परकालमें वर्तमान जीव स्वकार्यको नहीं करता। आशय यह है कि प्रत्येक वस्तुका वस्तुपना दो बातोपर निर्भर हैएक बह स्वरूपको अपनाये, दूसरे वह पररूपको न. अपनाये। इन दोनोंके बिना वस्तुका वस्तुत्व कायम नहीं रह सकता । जैसे, खरूपकी तरह यदि पररूपसे भी वस्तुको सत् माना जायेगा तो चेतन अचेतन हो जायेगा। तथा पररूपकी तरह यदि खरूपसे भी वस्तुको असर मामा जायेगा तो वस्तु सर्वथा शून्य हो जायेगी । खद्रव्यकी तरह परद्रव्यसे भी यदि वस्तुको सत् माना छम सग बिते। २लसग पम्मि ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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