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________________ : -२३३] १०. लोकातुप्रेक्षा १६५ क्षेत्रे खात्मावन्धक्षेत्र शरीरे नान्यक्षेत्रान्तरे । पुनः कथंभूतः । खखरूपस्थः स्वस्वरूपे शानदर्शन सुखसत्य दिवस्वरूपे स्थित एव न परखरूपे स्थितः, न पुहलादिखभावान्तरे स्थितः । अपिशब्दात् स्वकाळे वर्तमान एव न तु परकाळे । अत एव खद्रव्यखक्षेत्रखकाला भावेषु स्थित एवात्मा स्वस्वर्यायादिलक्षणानि कार्याणि करोतीति तात्पर्यम् ॥ २३२ ॥ ननु यथा स्वस्वरूपस्थ जीवः कार्याणि कुर्यात् तथा परस्वरूपस्थोऽपि किं न कुर्यादिति परोति धूपयति- स-सरूवरथो जीयो अण्ण-सरूवम्मि' गच्छदे जदि हि । अortor- मेलणादो एक-सरूवं हवे सवं ॥ २३३ ॥ 1 [ छाया - स्वस्वरूपस्थः जीवः अन्यस्वरूपे गच्छेत् यदि हि । अन्योन्यमेलनात् एकस्वरूपं भवेत् सर्वम् ॥ ] हीवि स्फुटम्। जीवः आत्मा स्वस्वरूपस्थः चेतनादिलक्षणे खखरूपे स्थितः सन् अन्यस्वरूपे पुद्रलादीनामचेतनस्वभावे गच्छेत् जायेगा तो द्रव्योंकी निश्चित संख्या नहीं रहेगी । तथा परद्रव्यकी तरह स्वद्रव्यकी अपेक्षाभी यदि वस्तुको असत् माना जायेगा तो सब द्रव्य निराश्रय हो जायेंगे। तथा स्वक्षेत्रकी तरह परक्षेत्रसे भी यदि वस्तुको सत् माना जायेगा तो किसी वस्तुका प्रतिनियत क्षेत्र नहीं रहेगा। और पर क्षेत्रकी तरह स्वक्षेत्रसे भी यदि वस्तुको असत् माना जायेगा तो वस्तु निःक्षेत्र हो जायेगी । तथा स्वकालकी तरह परकालसे भी यदि वस्तुको सत् माना जायेगा तो वस्तुका कोई प्रतिनियत काल नहीं रहेगा । और परकालकी तरह स्वकालसे भी यदि वस्तुको असत् माना जायेगा तो वस्तु किसी भी कालमें नहीं रहेगी । अतः प्रत्येक वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वफाल और स्वभावमें स्थित रहकर ही कार्यकारी होती है । सारांश यह है कि प्रत्येक वस्तु चार भागों में विभाजित है। ये चार भाग है व्य, द्रव्यांश, गुण और गुणांश । [ इन चारोंकी विशेष चर्चा के लिये पश्चाध्यायी पढ़ना चाहिये । अनु० ] अनन्त गुणोंके अखण्ड पिण्डको तो द्रव्य कहते हैं । उस अखण्ड पिण्डरूप द्रव्यकी प्रदेशोंकी अपेक्षा जो अंश कल्पना की जाती है उसे द्रव्यांश कहते हैं । द्रव्यमें रहनेवाले गुणोंको गुण कहते हैं। और उन गुणोंके अंशोंको गुणांश कहते हैं । प्रत्येक वस्तुमें ये ही चार बातें होती हैं। इनको छोड़कर वस्तु और कुछ भी नहीं है। इन्हीं चारोंकी अपेक्षा एक वस्तु दूसरी वस्तुसे जुदी मानी जाती है। इन्हें ही खचतुष्टय कहते हैं । स्वचतुष्टयसे खष्य, म्वक्षेत्र, काल और स्वभाव लिये जाते हैं। अनन्त गुणोंका अखण्ड पिण्डरूप जो द्रव्य है वही खद्रव्य है । यह द्रव्य अपने जिन प्रदेशोंमें स्थित है वही उसका खक्षेत्र है । उसमें रहनेशले गुणही उसका स्वभाव है । और उन गुणोंकी पर्याय ही स्वकाल है । अर्थात् द्रव्य, द्रव्यांश, गुण और गुणांश ही वस्तुके स्वदव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव है । वस्तुका द्रव्य उसके अनन्तगुण रूप अखण्ड पिण्डके सिवा दूसरा नहीं है। वस्तुका क्षेत्र उसके प्रदेशही हैं, न कि जहाँ वह रहती है। उस वस्तुके गुण ही उसका स्वभाव हैं और उन गुणोंकी कालक्रमसे होनेवाली पर्याय ही उसका स्वकाल हैं । प्रत्येक वस्तुका यह स्वचतुष्टय जुदा जुदा है। इस स्नचतुष्टयमें स्थित द्रव्य ही अपनी अपनी पर्यायों को करता है || २३२ || जैसे खरूपमें स्थित जीब कार्यको करता है वैसे पररूपमें स्थित जीव कार्य को क्यों नहीं करता ! इस शङ्काका समाधान करते हैं । अर्थ - यदि खरूपमें स्थित जीव परखरूपमें चला जावे तो परस्पर में मिलजानेसे सब द्रव्य एक १४ सवहि। २ बस एक म एक (१) ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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