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________________ १२. धर्मानुप्रेक्षा "उग्गमउप्पादणएसणाविसुद्धाए अकिरियाए दु । वसदि असंसत्ताए पिप्पाहुखियाए सेजाए ॥" उद्मोत्पादनैषणादोषरहितायां वसत्यामू । तत्रोदमदोषो निरूप्यते । वृक्षच्छेदनतदानयनम् इटिकापाक: भूमिखनन पाषाणसिक्तादिमिः पूरणं घरायाः कुट्टनं कर्दमकरण कीलाना फरणममिना लोहतापनं कृत्वा प्रताब्य कचैः काष्ठपारनं परशुमिः छेदनमित्येवमादिल्यापारेण पण्णो जीवनिकायाना बाधा कृत्वा स्वेन बा उत्पादिता अन्येन वा वसतिः आधाकर्मशब्देनोध्यते।। यावन्तो दीनानाथकृपला भागन्ति लिकिलो द गामिनियहितग इतः पमिदा मेवेति घा निर्धन्यानामेदेति सा उद्देसिग-वसतिभण्यते । २१.अपवरक सेयतानां भवत्विति विकृतं अज्झोषज्झं । ३। आत्मनो गृहार्थमानीतः काष्ठादिभिः सह बहुभिः श्रमणार्थमानीयाल्पेन मिश्रिता यत्र रहे तत्पूतिकमिति । ४ । पाण्टिनो गृहस्थान वा क्रियमाणे गृहे पश्चात् संयतान् उदिश्य काष्ठादिमित्रेण निष्पादित वैश्म मिथम् । ५। खार्थमेव कृतं संयतामिति स्थापित ठविद इत्युच्यते । ६ । संयतः सच यावद्भिर्दिनरागमिष्यति तत्प्रवेशदिने गृहसंस्कार सकलं करिष्यामः इति चेतसि कृत्वा यत्संस्कारित वेश्म तत् पाहुरिर्ग, तदागमानुरोधेन गृहसंस्कारकालापहासं कृत्वा वा संस्कारिता वसतिः।। यद्गृहमन्धकारबहुलं तत्र बहुलप्रकाशसंपादनाय यतीना छिद्रीकृतकुमम् अपाकृतफलक सुविन्यस्तप्रदीपकं वा तत्यादुष्कारशब्देन भण्यते । ८ । दम्यफीत भावकीतामिति द्विविध की बेदम सरि गोबलीदादिकं दत्त्वा संयतार्थ क्रीतम् अचित्त वा नगुडखण्डादिक दवा कति छन्दकीतं, विद्यामश्रादिदानेन वा क्रीत भावीतम् । २ । अरूपमणं कृत्वा वृद्धिसहितमधिकं वा गृहीतं संयतेभ्यः पामिच्छ। १० । महीये वेश्मनि तिष्ठतु भवान् युष्मवीयं तावदई यतिभ्यः प्रयच्छेति गृहीतं परियई।११। कुख्याद्यर्थ कुटीरककटादिकं स्यायें कीत है । विद्या मंत्र वगैरह देकर खरीदा हुआ मकान भावक्रीत है | बिना ब्याजपर अथवा ब्याजपर घोडासा कर्जा करके मुनियोंके लिये खरीदा बुआ मकान पामिच्छ दोषसे दूषित होता है | आप मेरे घरमें रहें और अपना घर मुनियोंके लिये देदें इस प्रकार से लिया हुआ मकान परिवर्त दोषसे दूषित होता है। अपने घरकी दीवार के लिये जो स्तम्भ आदि तैयार किये हों वह संयतों के लिये लाना अभ्यासत नामक दोष है । इस दोषके दो भेद हैं-आचरित और अनाचरित । जो सामग्री दूर देशसे अथवा अन्य ग्रामसे लाई गई हो उसको अनाचरित कहते हैं और जो ऐसी नहीं हो उसे आचरित कहते हैं । इंट, मिट्टी, बाड़ा, किवाद अथवा पत्थर से ढका हुआ घर खोलकर मुनियोंके लिये देना उद्भिन दोष है । नसैनी वगैरहसे चदकर 'आप यहाँ आईये, यह वसतिका आपके लिये है। ऐसा कहकर संयतोंको दूसरी अथवा तीसरी मंजिल रहनेके लिये देना मालारोह नामका दोष है । राजा मंत्री वगैरहका भय दिखाकर दूसरेका मकान वगैरह मुनियों के लिये दिलाना अछेध नामका दोष है । अनिसृष्ट दोषके दो मेद है-जिसे देनेका अधिकार नहीं है ऐसे गृहखामीके द्वारा जो वसतिका दी जाती है वह अनिसृष्ट दोषसे दूषित है । और जो वसतिका बालक और पराधीन खामीके द्वारा दीजाती है वह मी उक्त दोषसे दूषित है । यह उद्गम दोषोंका निरूपण किया । अब उत्पादन दोषोका कथन करते हैं । धापके काम पाँच हैं। कोई धाय बालकको मान कराती है, कोई उसको आभूषण पहनाती है, कोई उसका मन खेलसे प्रसन्न करती है, कोई उसको भोजन कराती है, और कोई उसको सुलाती है। इन पाँच धात्री कमोमेंसे किसी कामका गृहस्थको उपदेश देकर उससे बसतिका प्राप्त करना धात्रीदोष है । अन्य प्राम, अन्य नगर, देश, देशान्तरके समाचार कह कर प्राप्त की गई वसतिका दूतकर्म दोषसे दूषित है । अंग, खर, व्यंजन, लक्षण, छिन्न, भौम, खम और अन्तरिक्ष ये आठ महानिमिस हैं । इन आठ महानिमित्तोंके द्वारा शुभाशुभ फल बतलाकर प्राप्त की गई बसतिका निमित्त दोषसे दूषित है । अपनी जाति, कुल, ऐश्वर्य, वगैरहका माहारभ्य बक्त कार्तिके. ४३
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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