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________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [पा०४४९वैरार्य प्राप्तः । नरकाविमति दुःखम्छेदनशूलारोपणकुम्भीपाकपचनक्षधातृषावेदनोबेशानिय वियोगसंयोगमानसिकादिजंदुःख वर्सते । शरीरे विनाशि सप्तधातुमयमिति । भोगः रोगगृह विनाशकारीति चिन्तयन् वैराग्यवान् । पुनः कथंभूतः । अभ्यन्तरतपःकुशलः अभ्यन्तरेषु तपस्सु तपश्चरणेषु प्रायश्रितादिषु कुशलः निपुणः निष्णातः दक्षः चतुरः विवेकी । पुनः कीदक्षः । उपशमशीलः क्रोधमानमान्यालोभरागद्वेषादीनामुपशमस्वभावः अनुदयम्वरूपः । पुनः कीदक । महाशान्तः महान् पूज्यः स चासो शान्तः क्षमादिपरिणतः, यः एवंभूतः क्षपकः स श्मशाने निवराति पितृधने तिष्ठति । क के वसति सतिनते। बनमहने महावने गहनारण्ये अन्यत्रापि उद्वरागृहगिरिगुकाकन्दरकोटरादिके । कर्मभूते 1 चियिते ध्यानाध्ययनविनकरस्त्रीपशुपाण्डकादिवाजते । पुनः कथंभून स्थाने । महाभीमे महारौद्रे अतिभयामक एवंभूते वासे वराति या सस्य विविक्तशयनासनतपोनिधानं स्यात् । तथा श्रीभगवत्याराथनायो विविवशयनासननिरूपणा कथ्यते । "जहिं ण विसोसिय अत्यि दु सहरसरूवांधफासेहिं । समायझा गवाघादो वा बसधी विविन्ना सा ॥" यस्यां वसती म विद्यते अशुभपरिणामः । कैः कृत्वा । शब्दरसरूपगन्धवः करणभूतैः मनोज्ञः अममोशा सा विविक्ता वसतिः । स्वाध्यायध्यानयोयाघातो घा नास्ति सा विविक्ता भवति। "वियडाए अवियडाए समविसमाए बहिं व अंतो वा। इत्षिणसयपसुवज्जिदाए सीदाए उसिणाए ॥" विघटायाम् उद्घाटितद्वारायाम् अविघटितायाम् अनुदाटितद्वाराया का समभूमिसमन्वितायो वा बहिर्भागे अभ्यन्तरे वा श्रीभिनपुसकैः पशुभिश्व वर्जितायां वसती शीतायाम् उध्यायाम् । जो बाह्य भागमें हो अथवा अभ्यन्तर भागमें हो, जहाँ ती नपुंसक और पशु न हों, जो ठंडी हो, भषवा गर्म हो वह वसतिका एकान्त वसतिका है ।" जो वसतिका उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषोंसे रहित है वह एकान्त वसतिका मुनिके योग्य है । उद्गम आदि दोष इस प्रकार हैं-वृक्ष काटना, काटकर छाना, ईठे पकाना, जमीन खोदना, पत्थर बाल वगैरहसे गट्टा भरना, जमीन कूटना, कीचड करना, खम्मे खड़े करना, अग्निसे लोहेको तपाकर पीटना, आरासे लकड़ी चीरना, विसोलेसे छीलना, कुल्हाड़ीसे काटना, इत्यादि कार्योंसे छ. कायके जीवोंको बाधा देकर जो वसतिका खयं बनाई हो अपवा दूसरोंसे बनवाई हो यह वसतिका अधःकर्मके दोषसे युक्त होती है। जितने दीन, अनाथ, रुपण अपवा साधु आयेंगे, अथवा निम्रन्थ मुनि आयेंगे अथवा अन्य तापसी आयेंगे उन सबके लिये यह यसतिका होगी, इस उद्देश्यसे बनाई गई वसतिका उद्देशिक दोषसे युक्त होती है । अपने लिये ' बनवाते समय 'यह कोठरी साधुओं के लिये होगी' ऐसा मन में विचारकर बनवाई गई वसतिका भन्भोब्भव दोषसे युक्त होती है । अपने घरके लिये लायेगये बढ़त काष्ठादिमें श्रमणोंके लिये छाये हुए काष्ठादि मिलाकर बनवाई गई वसतिका पूतिक दोषसे युक्त होती है । अन्य साधु अथवा गृहस्पोंके लिये घर बनवाना आरम्भ करने पर पीछे साधुओंके उद्देश्यसे ही काष्ठ आदिका मिश्रण करके बनवाई गई बसतिका मिश्र दोषसे दूषित होती है । अपने लिये बनवाये हुए घर को पीछे संयतोंके लिये दे देनेसे वह घर स्थापित दोषसे क्षित होता है । मुनि इतने दिनों में आयेंगे जिस विन वे आयेंगे उस दिन सब घरको लीप पोतकर स्वच्छ करेंगे ऐसा मनमें संकल्प करके जिस दिन मुनिका आगमन हो उसी दिन वसतिकाको साफ करना पाहुडिग दोष है । मुनिके आगमनसे पहले संस्कारित वसतिका प्रादुष्कृत दोषसे दूषित होती है । जिस घरमें बहुत अंधेरा हो मुनियों के लिये प्रकाश लानेके निमित्तसे उसकी दीवारमें छेद करना, लकड़ीका पटिया घटाना, उसमें दीपक जलाना, यह पादुकार दोष है। खरीदे हुए घरके दो भेद हैं-द्रव्यत्रीत और भावक्रीत | गाय बैल भगैरह सचित्त पदार्थ देकर अथवा गुड़ खांड वगैरह अचित पदार्थ देकर खरीदा हुआ मकान सम्म पाल - वा विषमभूमिसमन्वितायो बाहि
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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