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१२. धर्मानुप्रेक्षा
शालः कल्पमाणां सुपरिवृत्तिवनं स्तूपहावलीच, प्राकारः स्फाटिकोऽन्तमुरमुभिग़भाषीठिकाग्रे स्वयंभूः ॥' आदिदेवस्य द्वादशयोजनप्रमाणम् , अजितस्य साधैकादशयोजनप्रमाणम्, शम्भवस्यैकादशयोजनमानमित्यादिक्रमेण हीयमान महावीरस्य योजनप्रमाणं रामवसरणम्। तथा विवक्षेत्रास्त्रतश्रीसीमधग्युमंधरादीनां समवसरण द्वादशयोजनप्रमाणम् । तत्र समवमरणम्य मध्ये तृतीयसिंहासनोपरि चतुरहटान्तरितं खयंभुवमईन्न चिन्तयेत् । तद्यथा : "आर्हन्त्यमहिमोपेत सर्व परमेश्वरम् । ध्याये देवेन्द्रचन्द्रार्कराभान्नम्धं स्वर्गभुवम् ॥ सर्वातिशयसंपूर्ण दिव्यलक्षणलक्षितम् । अनन्तमहिमाधार सोभिपरमेश्वरम् ।। सप्तधातुविनिर्मुक्कं मोक्षलागीकटाक्षितम् । सर्वभूतहितं देवं शीलशैलेन्द्रशेखरम् ॥" तथा । 'भामण्डलादियुक्तस्य शुद्धसाटिकमासिनः । चिन्तनं जिनरूपस्य रूपस्थं ध्येयमुच्यते । चतुर्विशदतिशयोपेतमएमहापातिहार्यविराजितमनन्दज्ञानाधनन्नवतुष्टयमण्डितं द्वादशमणोपेतं जिनरूपं चिन्तयेद्यानी। तथा च । 'घणघाइकम्ममहणो अइसगनरपाडिहरसंजुत्तो। शारह- धवलवणो अरइंतो समवसरणत्थो ॥ रुवं झाग दुविह समयं तह परमार्य च जं भणियं । सगयं
कलंकसे रहित चिन्तन करे । फिर अपने शरीरमें स्थित आत्माको आठ काँसे रहित, अत्यन्त निर्मल पुरुषाकार चिन्तवन करे । इस प्रकार यह पिण्डस्थ ध्यानका वर्णन हुआ । अब रूपस्थ ध्यानको कहते हैं | ध्यानी पुरुषको समवसरणमें स्थित जिनेन्द्र भगवानका चिन्तन करना चाहिये । समवसरणकी रचना इस प्रकार होती है-सबसे प्रथम चारों दिशाओं में चार मानस्तम्भ होते हैं, मानस्तम्भोंके चारों ओर सरोबर होते हैं, फिर निर्मल जलसे भरी हुई खाई होती है, फिर पुष्पवादिका होती है, उसके आगे पहला कोट होता है, उसके आगे दोनों ओर दो दो नाट्यशालाएँ होती है, उसके आगे दूसरा उपवन होता है, उसके आगे देका होता है, और जाऑको पंक्तिया होती हैं, फिर दूसरा कोट होता है, उसके आगे वेदिकासहित कल्पवृक्षोंका उपवन होता है, उसके बाद स्तूप और मकानोंकी पंक्ति होती है, फिर स्फटिकमणिका तीसरा कोट होता है, उसके भीतर मनुष्य, देव और मुनियोंकी बारह सभाएँ हैं । फिर पीठिका है, और पीठिकाके अप्रभागपर स्वयंभू भगवान विराजमान होते हैं । ऋषभ देवके समवसरणका प्रमाण बारह योजन था । अजितनाथके
रणका प्रमाण साढ़े ग्यारह योजन था। संभवनाथके समवसरणका प्रमाण ग्यारह योजन था। इस प्रकार क्रमसे घटते घटते महावीर भगवानके समवसरणका प्रमाण एक योजन था । तथा विदेह क्षेत्रमें स्थित श्री सीमंधर जुगमैधर आदि तीर्थक्करोंके समवसरणका प्रमाण बारह योजन है । ऐसे समवसरणके मध्यमें तीसरे सिंहासनके ऊपर चार अंगुलके अन्तरालसे विराजमान अर्हन्तका चिन्तन करे । लिखा भी है-'अर्हन्तपदकी महिमासे युक्त, समस्त अतिशयोंसे सम्पूर्ण, दिव्य लक्षणों से शोभित, अनन्त महिमाके आधार, सयोगकेवली, परमेश्वर, सप्तधातुओंसे रहित, मोक्षरूपी लक्ष्मीक कटाक्षके लक्ष्य, सब प्राणियोंके हित, शीलरूपी पर्वतके शिखर, और देव, इन्द्र, चन्द्र, सूर्य वगैरह की सभाके मध्यमें स्थित स्वयंभू अर्हन्त भगवानका चिन्तन करना चाहिये । इस तरह चौंतीस अतिशयोंसे युक्त, आठ महाप्रतिहायोंसे शोभित और अनन्त ज्ञान आदि अनन्त चतुष्टयसे मण्डित तथा बारह सभाओंके वीचमें स्थित जिनरूपका ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है ।' और भी कहा है-'घातियाकर्मोसे रहित, अतिशय और प्रातिहायोसे युक्त, समवसरणमें स्थित धबलवर्ण अरहंतका ध्यान करना चाहिये । रूपस्थ ध्यान दो प्रकारका होता है-एक खगत और एक परगत । आत्माका ध्यान करना स्वगत है और अर्हन्तका ध्यान करना परगत है । इस प्रकार
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