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________________ BE स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ४८२ याति वद्धिः शनैः शनैः ॥” इति आमेयी धारणा । २ । “अथापूर्व दिशाकाशं संचरन्तं महाबलम् । महावेगं स्मरेत् ध्यानी समीरणं निरन्तरम् ॥ तव्रजः शीघ्रमुय तेन प्रबलवायुना । ततः स्थिरीकृताभ्यासः पवनं शान्तिमानयेत् ॥” इति मारती । ३ । “दारुण्यां जलदनातं संवर्धन्तं नभस्तलात् । स्थूलधारा यजैर्वियुर्जनैः सह चिन्तयेत् ॥ ततोऽर्धेन्दुसमं कान्तं पुरं वरुणलाचितम् । स्मरेत्सुधापयः पूरैः प्रत्रयन्तं नभोगणम् ॥ तेन ध्यानोत्थनीरेण दिव्येन प्रबलेन सः । प्रक्षाल्येच निःशेषं तद्भस्म कायसंभवम् ॥ इति वारुणी । ४ । ततः योगी स्वात्मानं सर्वज्ञसदृशं सप्तधातुविनिर्मुक चन्द्रकोटिकान्तिसमं सिंहासनारूढं दिव्यातिशयसंयुतं कल्याणमहिमोपेतं देववृन्देरचितं कर्ममलकलङ्करहितं स्वस्वरूपं चिन्तयेत् । "तेश्रो पुरुसायारो सायब्बों जियसरगमत्यो । सियकिरणविप्फुरतो अप्पा परमप्पयसरूव ॥ पियण हिलमज्झे परिदियं विप्रताविते । अरुहरू साणं तं सुग्रह पिंडत्यं ॥ शायद लि करमशे भालयले हिययकटदेसम्हि । जिपख्वं रवितेयं पिंडत्थं सुमह आणहि ॥" "मस्तके बदने कण्ठे हृदये नाभिमण्डले । ध्यायेश्चन्द्रकलाकारे योगी प्रत्येकमम्बुजम् ॥” सिद्धसादृश्यं गतसिक्यमूषिकागर्भसमानं स्वात्मानं ध्यानी ध्यायेत् सिद्धसुखादिकं लभते । इति पिण्डस्यानं समाप्तम् ॥ अथ रूपस्थभ्यानमुच्यते । ध्यानीं समवसरणस्थं जिनेन्द्र चन्द्र चिन्तयेत् । "मानस्तम्भाः सरांसि प्रबिमलजलखत्वातिका पुष्पवाटी, प्राकारो नाव्यशाला द्वितयमुपवनं वेदिकान्तर्ध्वजाद्याः । T ध्यान करे । फिर उस कमलके सोलह पत्रोंपर 'अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ऌ, लू, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः ' इन सोलह अक्षरोंका ध्यान करे । और उस कमलकी कर्णिकापर 'अ' (ई ) इस महामंत्रका चिन्तन करे । इसके पश्चात् उस महामंत्र के रेफसे निकलती हुई धूमकी शिखाका चिन्तन करे । उसके पश्चात् उसमेंसे निकलते हुए स्फुलिंगोंकी पंक्तिका चितवन करे । फिर उसमेंसे निकलती हुई ज्वालाकी लपटोंका चिन्तन करे । फिर क्रमसे बढ़ते हुए उस ज्वाला के समूह से अपने हृदय में स्थित कमलको जलता हुआ चिन्तन करे । वह हृदयमें स्थित कमल आठ पत्रोंका हो, उसका मुख नीचे की ओर हो और उन आठ पत्रपर आठ कर्म स्थित हों । उस कमलको नाभिमें स्थित कमलकी कर्णिकापर विराजमान 'हूँ' से उठती हुई प्रबल अग्नि निरन्तर जला रही है ऐसा चिन्तन करे | उस कमलके दग्ध होनेके पश्चात् शरीरके बाहर त्रिकोण अमिका चिन्तन करे । वह अग्नि बीजाक्षर 'ए' से व्याप्त हो और अन्तमें स्वस्तिक से चिह्नित हो । इस प्रकार वह धगधग करती हुई लपटों के समूह से देदीप्यमान अभिमंडल नाभिमें स्थित कमल और शरीरको जलाकर राख कर देता है । फिर कुछ जलानेको न होनेसे वह अभिमण्डल चीरे धीरे स्वयं शान्त होजाता है । यह दूसरी आग्नेय धारणाका स्वरूप कहते हैं। आगे मारुती धारणाका खरूप कहते हैं । ध्यानी पुरुष आकाशमें विचरण करते हुए महावेगवाले बलवान वायुमण्डलका चिन्तन करे । फिर यह चिन्तन करे कि उस शरीर वगैरह की भस्मको उस वायुमण्डलने उड़ा दिया फिर उस वायुको स्थिर रूप चिन्तवन करके शान्त कर दे । यह मारुती धारणा का स्वरूप हैं। आगे वारुणी धारणाका वर्णन करते हैं । फिर वह ध्यानी पुरुष आकाशसे गर्जन तर्जन के साथ बरसते हुए मेघों का चिन्तन करे । फिर अर्ध चन्द्रमा आकार मनोहर और जलके प्रवाह से आकाश रूपी आगनको बहाते हुए वरुण मण्डलका चिन्तन करे । उस दिव्य ध्यानसे उत्पन्न हुए जलसे शरीर के जलनेसे उत्पन्न हुई राखको धोता है ऐसा चिन्तन करे । यह वारुणी धारणा है । अव तत्त्ववती धारणाको कहते हैं । उसके बाद ध्यानी पुरुष अपनेको सर्वज्ञके समान, सप्तधातुरहित, पूर्णचन्द्रमाके समान प्रभावाला, सिंहासनपर विराजमान, दिव्य अतिशयोंसे युक्त, कल्याणकों की महिमा सहित देवोंसे पूजित, और कर्मरूपी I ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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