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________________ स्वामिकाफिक्रेयानुप्रेक्षा [गा० ५८२णियअप्याणं परगयं च जाण परमेट्ठी ॥ इति रूपस्थं तृतीयं ध्यान समाप्तम् । अथ रूपातीत ध्यानं कथ्यते। 'अब हमे स्थिरीभूतचितः प्रशीणविभ्रमः। अमूर्तमजमव्यक्त ध्यानु प्रकमते ततः ॥ चिदानन्दमयं शुद्धममूर्त परमाक्षरम् । स्मरेथवात्मनात्मानं तद्रूपातीतमिष्यते ॥ विचार्थेति गुणान स्वस्थ सिद्धानामपि व्यक्तिः। निराकृत्य गुण दै खपरात्मशिवात्मनाम्॥ तदुणग्रामसंपूर्ण तत्वभावकभाषितम्। कृत्वात्मानं ततो ध्यानी योजयेत्परमात्मनि ॥ यः प्रमाणनयन खतस्वमवबुध्यते। बुध्यते परमात्मानं स योगी बीतविभ्रमः ।। व्योमाकारमनाकारे निष्पन्नं शान्तमच्युतम् । चरमाजाकियन्त्यूनं स्वप्रदेशधनः स्थितम् ॥ लोकाप्रशिखरासीनं शिवीभूतमनामयम् । पुख्याकारमापनमप्यमूर्त व चिन्तयेत् ॥ विनिर्गतमधूच्छिमप्रतिमे मूपिकोदरे । यादृग्गगनसंस्थान सदाकारं स्मरेडिभुम् ।। सर्वावयवसंपूर्ण सर्वलक्षणलक्षितम् । विशुद्धादर्शसंक्रान्तप्रतिविम्बसमप्रभम् ॥ इत्यसो सतताभ्यासबशारसंजातनिवयः। अपि खनाद्यवस्थासु तमेवाध्यक्षमीक्षते । सोऽहं सकलवित्सार्वः सिद्धः साध्यो भवच्युतः । [परमात्मा परंज्योतिर्विश्वदशी निरजनः ॥ तदासौ निश्चलोऽमूर्तो निष्कलको जगद्गुरुः । ] चिन्मात्रः प्रस्फुरत्युच्चातृध्यानविवर्जितः ॥ पृथग्भावमतिक्रम्य तथैक्यं परमात्मनि । प्राप्नोति स मुनिः साक्षायथान्यत्वं न विद्यते।' उक्तं च । 'निःकल: परामामाह लोकालोकावभासकः। विश्वव्यापी स्वभावस्थो विकारपरिदर्जितः । तथा चोक्तं । 'णय तीसरा रूपस्थ ध्यान समाप्त हुआ । आगे रूपातीत ध्यानको कहते हैं-रूपस्थ ध्यानमें जिसका चित्त स्थिर होगया है और जिसका विभ्रम नष्ट होगया है ऐसा ध्यानी अमूर्त, अजन्मा और इन्द्रियोंके अगोचर परमात्माके ध्यानका आरम्भ करता है | जिस ध्यानमें भ्यानी पुरुष चिदानन्दमय, शुद्ध, अमूर्त, परमाक्षररूप आत्माका आत्माके द्वारा ध्यान करता है उसे रूपातीत ध्यान कहते है ।। इस ध्यानमें पहले अपने गुणोंका विचार करें। फिर सिद्धोंके भी गुणोंका विचार करे । फिर अपनी आत्मा, दूसरी आत्माएँ तथा मुक्तात्माओंके बीचमें गुणकृत भेदको दूर करे। इसके पश्चात् परमात्माके खभावके साथ एकरूपसे भाबित अपनी आत्माको परमात्माके गुणोंसे पूर्ण करके परमात्मामें मिलादे । जो ध्यानी प्रमाण और नयोके द्वारा अपने आत्मतत्त्वको जानता है वह योगी बिना किसी सन्देहके परमात्माको जानता है । आकाशके आकार किन्तु पौद्गलिक आहारसे रहित, पूर्ण, शान्त, अपने खरूपसे कमी म्युत न होनेवाले, अन्तके शरीरसे कुछ कम, अपने घनीभूत प्रदेशोंसे स्थिर, लोकके अप्रभागमें विराजमान, कल्याणरूप, रोगरहित, और पुरुषाकार होकर भी अमूर्त सिद्ध परमेष्ठीका चिन्तन करे ॥ जिसमेंसे मोम निकल गया है ऐसी मूषिकाके उदरमें जैसा आकाशका आकार रहता है तदाकार सिद्ध परमात्माका ध्यान करे ।। समस्त अवयवोंसे पूर्ण और समस्त लक्षणोंसे लक्षित, तथा निर्मल दर्पणमें पड़ते हुए प्रतिबिम्बके समान प्रभावाले परमात्माका चिन्तन करे । इस प्रकार निरन्तर अभ्यासके वंशसे जिसे निश्चय होगया है ऐसा ध्यानी पुरुष स्खमादि अवस्थामें भी उसी परमात्माको प्रत्यक्ष देखता है ।। इस प्रकार जब अभ्याससे परमात्माका प्रत्यक्ष होने लगे तो इस प्रकार चिन्तन करे-वह परमात्मा मैं ही हूँ, मैं ही सर्वज्ञ हूँ, सर्वव्यापक हूँ, सिद्ध है, मैं साध्य हूँ, और संसारसे रहित हूँ। ऐसा चिन्तन करनेसे ध्याता और ध्यानके भेदसे रहित चिन्मात्र स्फुरायमान होता है । उस समय ध्यानी मुनि पृथक्पनेको दूर करके परमात्मासे ऐसे ऐक्यको प्राप्त होता है कि जिससे उसे भेदका मान नहीं होता ॥ कहाभी है-'मैं लोक और अलोकको जानने देखनेवाला, विश्वव्यापी, स्वभावमें स्थिर और विकारोंसे रहित विकल परमात्मा हूँ। और भी कहा है जिसमें न तो शरीरमें स्थित आत्माका विचार करे, न शरीरका विचार करे और न खगत या परगत
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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