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________________ ४८३] १२. धर्मानुप्रेक्षा चिंत देहत्यं देहं च ण चितए कि पिण सगयपरगयस्वं तं गयख्वं निरालंब || जत्थ ण झाणं ज्ञेयं शायारो य चितणं किंपि ण य धारणावियप्पो तं साणं सुदु भाणिज ॥' 'धर्मध्यानस्य विज्ञेया स्थितिरान्तर्मुहूर्तिका । क्षायोपशमिको भावो लेश्या शुक्रेष शाश्वती ॥' इति रूपातीतं चतुर्थ ध्यानम् धर्मध्यानवर्णनं समाप्तम् ॥ ४८२ ॥ अथ शुरुध्वानं गाथापचकेन विशदयति । जत्थ गुणा सुविसुद्धा उयसम-खमणं' व जत्थ कम्माणं । समा ॥ ४८३ ॥ सा वि जत्था तं [ छाया-यत्र गुणाः सुविशुद्धाः उपशमपर्ण च यत्र कर्मणाम् । खेया अपि यत्र शुक्ला तत् शुक्रं भण्यते ध्यानम् ॥ ] सत् प्रसिद्ध शुक्रं शुक्राख्यं ध्यानं भव्यते कथ्यते जिनेरिति शेषः । तत् किम् । यत्र गुणाः सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रादयो गुणाः सकलमूलोत्तरगुण्डा वा । कथंभूतास्ते गुणाः । सुविशुद्धाः शङ्कादिमलरहिताः । च पुनः यत्र ध्याने कर्मणां मिध्यात्वादि प्रकृतीनाम् उपशमः करणत्रयविधानेन उपशमनम्। वज्रषभनाराचवज्रनाराचनाराचसंहननाविष्टो मुनिः अपूर्वोपशमकानिशृत्युपशमकसूक्ष्मम परायोपासकोपशान्तकषाय पर्यन्नगुणस्थानचतुष्टये उपशमश्रेणिचरितः उपशमसम्यम्टष्टिरष्टाविंशति मोहनीय कर्मप्रकृतीनाम् उपशमं विदधाति पृथतयवितर्कवी चार ध्यानबलेन उपशमं करोति । क्षायिकसम्यग्दृष्टिस्तु एकविंशतिप्रकृतीनामुपशमं विदधाति । तत्र्यानबलेनेत्यर्थः । अथवा अपर्ण कर्मणां निःशेषनाशनं च । वृषभनाराच संहननस्थः क्षपकः अपूर्व करण्णक्षण कानिक शिकरण क्षपकसूक्ष्मसावरायक्षपकाभिधानगुणस्थानत्रये क्षपकश्रेण्यारूढः प्रथमशुलध्यानचखेन ज्ञानावरणादीनां प्रकृतीनां क्षयं विदधाति इत्यर्थः । अपि पुनः यत्र शुक्रभ्याने लेश्यापि शुका, अपिशब्दात् न केवलं ध्यानं शुक्रं शुक्रा शुक्रवैश्या, शुक्रलेश्मासहितं शुभं ध्यानं चतुर्ष स्यावित्यर्थः । तथा चोक ज्ञानार्णवे । 'आदिसंज्ञननोपेतः सर्वशः पुण्यचेष्टितः । चतुर्विधमपि ध्यानं स शुक्रं ध्यातुमर्हति ॥' 'शुचिगुणयोगाच्छु कषायरजसः फिरो 3 केटल रूपका विचार करे, उसे रूपातीत ध्यान कहते हैं | जिसमें ध्यान धारणा ध्याता ध्येय, और का कुछ भी विकल्प नहीं है वही ध्यान श्रेष्ठ ध्यान है | इस प्रकार चौथे रूपातीत ध्यानका वर्णन जानना चाहिये । धर्मध्यानका काल अन्तर्मुहूर्त है, उसमें क्षायोपशमिक भात्र और शुक्ल लेश्या ही होती है ॥ इस तरह धर्म ध्यानका वर्णन समाप्त हुआ || ४८२ ॥ आगे पाँच गाथाओंसे शुक्र ध्यानको कहते हैं । अर्थ- जहाँ गुण अतिविशुद्ध होते हैं, जहाँ कमका उपशम और क्षय होता है, तथा जहाँ लेपा भी शुक्ल होती है, उस ध्यानको शुद्ध ध्यान कहते हैं | भावार्थ - जिस ध्यान से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र आदि गुण निर्मल हो जाते हैं, जिसमें वज्रवृषभ नाराच संहनन, वननाराच संहनन और नाराच संहननका धारी उपशमसम्यन्दृष्टी मुनि उपशम श्रोणिपर चढकर पुष्मत्व वितर्क वीचार नामक शुक्लध्यानके बलसे मोहनीयकर्मकी अठाईस प्रकृतियों का उपशम करता है और क्षायिक सम्यग्दृष्टी मोहनीयकी शेष बचीं इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम करता है, तथा जिसमें वक्रवृषभनाराच संहननका धारी मुनि क्षपक श्रेणिपर चढकर ज्ञानावरण आदि कमका क्षय करता है, और जिसमें लेश्या मी शुद्ध ही होती है वह ध्यान शुक्रध्यान है । ज्ञानार्णवमें मी कहा है- 'जिसके पहला वज्रवृषभ नाराच संहनन है, जो ग्यारह अंग और चौदह पूर्वका जाननेवाला है, और जिसका चारित्र भी शुद्ध है वही मुनि चारों प्रकारके शुक ध्यानोंको धारण करनेके योग्य है ॥ कषायरूपी रजके क्षय अथवा उपशमसे जो आत्मामें शुचिपना आता है उस शुचिगुणके सम्बन्धसे १ मंग खत्रणं । vanja
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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