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________________ ३८० स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० ४८५क्षयादुपशमाद्वा । वैडूर्यमणिनिखा इव सुनिर्मलं निष्प्रकम्मं च ॥ कषायमलविश्लेषात्प्रशमादा प्रसूयते । यतः पुंसामतस्तज्जैः शुममुक्तं निरुक्तिकम् ।। इति ॥४८३॥ पडिसमयं सुझंतो अर्णत-गुणिदाएं उभय सुद्धीए । पढमं सुकं झायदि आरुढो उहय-सेहीसु ॥४८४ ॥ [छाया-प्रतिसमय शुध्यन् अनन्तगुणितया उभयशुधा । प्रथम शुर ध्यायति आरूतः उभयश्रेणीषु ।। ] ध्यायति स्मरति चिन्तयति । किं तत् । प्रथमं शुक्र पृथक्त्ववितकेवीवाराख्यं शुकध्यान ध्यायति । कः। आरूढः मुनिः आरोदणं प्राप्तः चटितः । क) उभय श्रेणिषु अपूर्वकरणगुणस्थानादिषु उपशामधेग्यों व । कर्मभूतः । उपशमको वा क्षपको वा मुनिः प्रतिसमयं शुध्यन् समय समय प्रति शुद्धि निर्मलता गच्छन् प्रतिसमयम् अनन्तगुणविशुद्ध्या वर्तमान इत्यर्थः । कया उभयच्या अन्तर्बहिनिमलतया । अथवा उपशमक्षपश्रेण्योः अपूर्वकरणपरिणामानां शुद्ध्या अनन्तगुणविशुख्या। कीहक्षया तया । अनन्तगुणितया पूर्वपरिणामात् उत्तरपरिणामः अनन्तगुणविशुख्या निर्मलतया वर्धमानः पूर्वपरिणामान उत्तरपरिणामा कागुणवर्धमानाः अत एव अनन्तगुणिता तया वर्धमानः। तथा हि उपशमविधानं सावल्कथ्यते । वृषभनाराचयनाराचनाराबसंहननेषु मध्ये अन्यतमसंहननस्थो भब्यवरपुण्डरीकः चतुर्थपञ्चमषष्ठमसप्तमेषु गुणस्थानेषु AnamouT4ALLही इसका नाम शुक्ल पड़ा है ॥ ४८३ ॥ अर्थ-उपशम और क्षपक, इन दोनों श्रीयोंपर आरूढ़ हुआ और प्रतिसमय दोनों प्रकारकी अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ मुनि पृथक्त्व वितर्क वीचार नामक प्रथम शुक्लभ्यानको ध्याता है ।। भावार्थ-सातवें गुणस्थान तक तो धर्मध्यान होता है । उसके पश्चात् दो श्रेणियाँ प्रारम्भ होती हैं, एक उपशम श्रेणि और एक क्षपकश्रेणि । उपशम श्रेणिमें मोहनीयकर्मका उपशम किया जाता है, उपशमका विधान इस प्रकार कहा है-वनवृषभ भाराच, वनाराच और नाराच संहननभेसे किसी एक संहननका धारी भव्य जीव चौथे, पांचवे, छठे और सातवे गुणस्थान मेंसे किसी एक गुणस्थानमें धर्मध्यानके बलसे अन्तरकरणके द्वारा अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ, मिथ्यात्वं, सम्यमिथ्यात्व और सम्यक्त्व मोहनीय इन सात प्रकृतियोंका उपशम करके उपशमसम्यग्दृष्टि होता है, अथवा इन्हीं सात प्रकृतियोंका क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है। उसके पश्चात् सातवें गुणस्थानसे उपशम श्रेणि पर आरूढ़ होनेके अभिमुख होता है। तब अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमेसे अधःप्रवृत्त करणको करता है । उसको सातिशय अप्रमत्त कहते हैं । वह अप्रमत्त मुनि अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थानमें उपशमश्रेणि पर चढकर पृथक्त्व वितर्क वीचार नामक प्रथम शुक्क ध्यानके बलसे प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धिको करता हुआ प्रतिसमय कमौकी गुणश्रेणि निर्जरा करता है । वहाँ अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहरकर उसके बाद अनिवृत्तिकरण नामक नौवें गुणस्थानमें आता है। और पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्लध्यानके बलसे अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ, संज्वलन क्रोध मान माया लोभ और हास्य आदि नोकषायों, चारित्रमोहनीयकर्मकी इन इक्कीस प्रकृतियोंका उपशम करता हुआ सूक्ष्म साम्पराय नामक दसवें गुणस्थानमें आता है। वहाँ सूक्ष्मकृष्टिरूप हुए लोभ कषायका वेदन करता हुआ अन्तिम समयमें संज्वलन लोभका उपशम करता है। उसके पश्चात् उपशान्त कषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानमें पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्लभ्यानके बलसे समस्त मोहनीयकर्मका १वगुणिदाम, स ग गुणदाए ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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