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________________ -१५७] १०. लोकानुप्रेक्षा [छाया-सूक्ष्मपर्याप्तानाम् एकः भागः भवति नियमेन । संख्येयाः खल भागाः तेषां पर्याप्तबहानाम् ॥] मुहुमापज्जत्ताणं सूक्ष्मवन्यपयोताना पृथ्वीकायिका दिजीवानामेकेन्द्रियजीवराशेरसंख्यातलोकभागपरिमार्ण भवः। तचा गोम्मटसारे प्रोकं च । “आउहासिवार लोगे अण्णोष्णसंगुणे तेऊ । भूजलवाऊ अहिया पविभागोऽसंचलोगो दु ।" असंख्यातगुणितलोकमात्रतेजस्कायिकजीवराशि प्रमाण = 8. भवति । भूजलबायुकायिकाः कमेण सेजस्कायिकराशितोऽधिका भवन्ति तदधिकागमन निमितं भागहारः प्रतिभागहारोऽसंख्यातलोकप्रमितो भवति । तसंवशिनवार: ९। अधिकक्रमो दर्यते । तद्यथा। उकतेजस्कायिकराशौ = a अस्यैव तत्पतिभागहारभरोडमागेन = 1: अधिकीकृते सत्ति पृथिवीकामिकजीवराशिप्रमाणं भवति = .1 पुनः अस्मिमेव राशी अम्मर तत्प्रतिभागहारभकभागेन = . . अधिकीकृते सति अप्कायिकजीवराशिप्रमाण भवति । = पुनः अस्मिोग राशो अस्यैव प्रतिभागहारभकभागेन = ..... अधिकीकृते सति वायुकाबिकजीवराशिप्रमाणं भवति = & १०१०१। “अपदिदिपाया असंखलोगप्पमाणया होति । तत्तो पदिदिदा पुण असंखलोगेण संविदा ॥" अप्रतिछित प्रत्येकवनस्पतिकायिका जीवाः यथायोग्यासंख्यातलोकप्रमाणाः भवन्ति = 81 पुनः प्रविधित प्रत्येक A TT जीवराशिका प्रगण है । सो गणा करनेकी पद्धति इस प्रकार है-लोकके प्रदेश प्रमाण विरलन, शलाका और देय राशि रखकर विरलन राशिका विरलन करके एक एक जुदा जुदा रखो । और प्रत्येकपर देय राशिको स्थापित करके परस्परमें गुणा करो। तथा शलाका राशि से एक घटाओ । ऐसा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसका विरलन करके एक एक के ऊपर उसी राशिको देकर फिर परस्परमें गुणा करो और शलाका राशिमेंसे एक घटाओ। जब तक लोकप्रमाण शलाका राशि पूर्ण न हो तब तक ऐसा ही करो। ऐसा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो, फिर उतनी ही शलाका, विरलन और देयराशिको रखकर विरलन राशिका विरलन करो और एक एकपर देयराशिको रखकर परस्परमें गुणा करो। तथा दूसरी बार रखी हुई शलाका राशिमेंसे एक घटाओ । इस तरह गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसका विरलन करके एक एकपर उसी राशिको रखकर परस्परमें गुणा करो और शलाका राशिमेसे पुन: एक घटाओ । इस तरह दूसरी बार रक्खी हुई. शलाका राशिको भी समाप्त करके जो महाराशि उत्पन्न हो, तीसरी बार उतनी ही शलाका विरलन और देय राशि स्थापित करो। बिरलन राशिका विरलन करके एक एकके ऊपर देयराशिको रखकर परस्परमें गुणा करो और तीसरी बारकी शलाका राशिमेंसे एक घटाओ। ऐसा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसका विरलन करके एक एकके ऊपर उसी राशिको रखकर परस्परमें गुणा करो और शलाका राशिमेंसे एक घटाओ। इस तरह तीसरी बार रक्खी बुई शलाका राशिको भी समाप्त करके अन्तमें जो महाराशि उत्पन्न हो उतनी ही विरलन और देयराशि रखो । और पहलीबार, दूसरीबार, तीसरीबार रखी हुई शलाका राशिको जोड़कर जितना प्रमाण हो उतना उस राशिमेंसे घटाकर शेष जो रहे उतनी शलाका राशि रखो। विरलन राशिका विरलन करके एक एकके ऊपर देयराशिको रखकर परस्परमें गुणा करो और चौथी बार रक्खी हुई शलाका राशिमें से एक घटाओ । ऐसा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसका विरलन करके एक एकके ऊपर उसी राशिको रखकर परस्परमें गुणा करो और शलाका -- ---- ----- १ कुत्रचित् संवायाः माने ७ सपाङ्गनिर्देशः पयते, समानार्थत्वात् । •
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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