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________________ A ९२ स्वामिकार्त्तिकेयातुप्रेक्षा [ गा० १५०"तसरासिपुढ विभावरी चलतेय. वनस्पतिकारिका जीवाः देने का ही संसारी । साहारणजीवाणं परिमाण होदि जिगदिहं ॥" सराशिना मात्रल्यसंख्येय भागभ करत राहुलभाजित जगत्प्रतरप्रमिलेन २/२ तथा पृथिव्यादिचतुष्टयेन प्रत्येक वनस्पतिराशिद्वयेन चेति । शिश्रयेण विहीनः संसार शिरेन साधारणजीवराप्रमाणं भवति १३ = ॥ " सगसग असंभागो बादरकायाण होदि परिमाणं सेसा सुहुमपमाणं पचिभागो पुष निहिडो ॥ " पृथिव्यप्तेजोवायुका चिकानां साधारण वनस्पतिकायिकानां चासंख्येयलो के भागमात्रं खखमा दरकाथानां परिमाणं भवति । दशेषत तद्वभागाः सूक्ष्मकारा जीवानां प्रमाणम् ॥ " हुमेसु संखभाग संकाभागा अपुण्णगा इदरा ।" पृथिव्यप्तेजोवायु साधारण वनस्पतिकायिकानां ये सूक्ष्माः प्रागुतास्तेष्वपर्याप्ताः तत्संख्या तकभागप्रमाणा भवन्ति । पर्याप्त-, कास्तरसंख्यातबहुभागप्रमिता भवन्ति । तथा बालापयोधार्थ पुनरप्येकेन्द्रियादीनां सामान्यसंख्यां गोम्मटसारोकामाह । "चावर संश्च पिपीलिय भमरमणुस्वादिगा सभेदा जे | युगवारमसंखेाणंताणंता मिगोदभवा ॥” स्थावराः पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकचनस्पति कामिकना मानः पचविषैकेन्द्रियाः, शंखादयो होन्द्रियाः, पिपीलिकादयस्त्रीन्द्रियाः, भ्रमरादयश्चतुरिन्द्रियाः, मनुष्यामः पचेन्द्रियशश्व स्वस्वावान्तर मेदसहिताः प्राक्कथितास्ते प्रत्येकं द्विकवारासंख्यातप्रमिता भवन्ति । निगोधाः साधारणवनस्पतिकायिकाः अनन्तानन्ता भवन्ति ॥ अथ विशेष संख्यां कययंस्तावदेकेन्द्रिय संख्यामाह । "तसहीगो संसारी एक्खा तान संखगा भागा । पुष्णाणं परिमाणं संखेजदिमं अपुण्यानं ॥" सराधिहीन संसारिराष्टिरेव एकेन्द्रिय रानिर्भवति १३ । अस्य च संख्या तबहुभागाः पर्याप्तकपरिमाणं भवति १३ । । सकभागः अपप्रमाणं भवति १३ । ३ । अत्र संख्यातस्य संदृष्टिः पाकः ५ ॥ व्यथैकेन्द्रियावान्तर मेहसंख्या विशेषमाह । "रहुमा तेसिं पुष्णा पुष्णोत्ति छव्हिाणं पि । तकायमग्गणाए भणिजमाणको यो | " सामान्यै केन्द्रिमराशेः बादर सूक्ष्माविति द्वो मेदौ तयोः पुनः प्रत्येकं पर्याप्ता पर्याप्ताविति चत्वारः । एवं षदान तस्काय मार्गणाय मणिष्यमाणः क्रमो हेयः । तथा हि एकेन्द्रियसामान्य राशेर संख्या तलोकभकेकभागो बावकेन्द्रिय राशिप्रमाणे १३-३ राशिमेंसे एक घटाओ। इस तरह जब शलाका राशि समाप्त हो जाये तो अन्तमें जो महाराशि उत्पन्न हो उतनी ही तैजस्कायिक जीव राशि है । इस राशि में असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे तैजस्कायिक जीवोंके प्रमाण में मिला देनेसे पृथिवीकायिक जीवोंका प्रमाण होता है। इस पृथिवीकायिक राशिमें असंख्यात लोकका भाग देनेसे जो लब्ध आये उसे पृथिवी कायिक जीवोंके प्रमाणमें मिला देनेसे अष्कायिक जीवोंका प्रमाण होता है । अप्कायिक राशिमें असंख्यात लोकका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसे अकायिक जीवोंके प्रमाणमें मिला देनेसे वायुकायिक जीवोंका प्रमाण आता है। इस तरह तैजस्कायिक जीवोंसे पृथ्वीकायिक जीव अधिक हैं। उनसे अकायिक जीव अधिक हैं । और उनसे वायुकायिक जीव अधिक हैं ॥ १ ॥ अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव यथायोग्य असंख्यात लोक प्रमाण हैं । इनको असंख्यात लोकसे गुणा करने पर जो प्रमाण आवे उतने प्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव हैं ॥ २ ॥ आवलीके असंख्यातयें भागसे भाजित प्रतशंगुलका भाग जगत्प्रतर में देनेसे जो लब्ध आवे उतन, यस राशिका प्रमाण है । इस स राशिके प्रमाणको तथा ऊपर कहे गये पृथिवीकायिक, अष्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीवोंके प्रमाणको संसारी जीवोंके परिमाण मेंसे घटाने पर जो शेष रहे उतना साधारण वनस्पतिकायिक अर्थात् निगोदिया जीवोंका परिमाण होता है || ३ || पृथ्वी, अप्, तेज, वायु और साधारण वनस्पतिकायिक जीवका जो ऊपर प्रमाण कहा है उस परिमाण में असंख्यातका भाग दो । सो एक भाग प्रमाण तो बादर कायिकों का प्रमाण है और शेष बहुभाग प्रमाण सूक्ष्म कायिक जीवोंका प्रमाण है ।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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