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खाभिकार्तिकथामा
[गा० १५५चउरक्खा पंचक्खा यक्सा तह य जाण सेयक्खा।
एदे पजसि-जुदा अहिया अहिया कमेणेव ॥ १५५ ॥ [अया-चतुरक्षाः पञ्चाक्षाः पक्षाः तथा च जानीहि त्र्यक्षाः । एते पर्याप्शियुताः अधिकाः अधिकाः क्रमेण एवं ॥ एते चतुरिनियादयः पतियताः क्रमेण अधिका अधिका भवन्ति । पतुरिन्दियपर्याप्तभ्यः पञ्चेन्द्रिय अधिकाः स्युः । तथा चलतः परन्त्रिपपर्याप्तेभ्यःहीन्द्रियाः पर्वाता अधिकाः। ततः द्वीन्द्रियपर्याप्तेभ्यः त्रीन्द्रियाः पर्याप्त अधिका भवन्ति । एते चतुरिन्द्रियादयः पर्याप्तियुक्ताः पर्याप्तकाः क्रमेण अधिकाधिका विशेषाधिका भवन्ति ॥ १५५ ॥
परिवजिय सुहमाणं सेस-तिरिक्खाणे पुण्ण-देहाणं ।
इको भागो होदि हु संखातीदा अपुण्णाणं ॥ १५६ ॥ [छाया-परिवयं सूक्ष्माणां शेषतिरश्वा पूर्णदेहानाम् ! एकः भागः भवति खष्ठ संख्यातीताः अपूर्णानाम् ॥] सहमाणं सूक्ष्माणो, परिवजिय वयित्वा, सूक्ष्मान् जीवान् पृथ्व्यप्लेजोवायुवनस्पतिकायिकान् बर्जविरवा इत्यर्थः । पुण्णदेहाणं पयांताना शेषतिरश्वा पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकाना पादराणाम् एको भागः संख्या भवति । हु इति स्फुटम् । अपुण्याण लब्ध्यपर्याप्तानां तिरश्च संखातीदा असंख्यातलोकबहुभागा भवन्ति ॥ १५६ ॥
सुहमापजत्ताणं इको भागो हवेदि णियमेण ।
संखिजा खलु भागा तेर्सि पजसि-देहाणं ।। १५७ ॥ प्रतर प्रमाण हैं । उनसे चौइन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त विशेष अधिक है । उनसे तेइन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त विशेष अधिक हैं। उनसे दोइन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त विशेष अधिक है। इस प्रकार क्रमसे ये सब जीव कुछ अधिक कुछ अधिक हैं ॥१५४ ।। अर्थ-चौइन्द्रिय, पश्चेन्द्रिय, दोइन्द्रिय और सेइन्द्रिय पर्याप्त जीव अमसे अधिक अधिक है ॥ भावार्थ-ये पर्याप्त चौइन्द्रिय आदिजीव क्रमसे अधिक अधिक है। अर्थात् चौइन्द्रिय पर्याप्त जीवोंसे पश्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव अधिक हैं । पश्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंसे दोइन्द्रिय पर्याप्त जीत्र अधिक हैं। दोइन्द्रिय पर्याप्त जीवोंसे तेइन्द्रिय पर्याप्त जीव अधिक हैं । इस तरह ये पर्याप्त चौइन्द्रिय आदि जीव क्रमसे अधिक अधिक है ॥ १५५ ॥ अर्थ-सूक्ष्म जीवोंको छोड़कर शेष जो तिर्यश्च हैं, उनमें एक भाग तो पर्याप्त हैं और असंख्यात बहुभाग अपर्याप्त है । भावार्थ-सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्म तैजस्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक और सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवोंको छोड़कर शेष जो बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर तैजस्कायिक, बादर वायुकायिक और बादर बनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यच हैं उनमें एक भाग प्रमाण पर्याप्तक हैं और असंख्यात लोक बहु भाग प्रमाण अपर्याप्तक है। अर्थात्, बादर जीवोंमें पर्याप्त थोड़े होते हैं, अपर्याप्त बहुत हैं ।। १५६॥ अर्थ-सूक्ष्म अपर्याप्त जीव नियमसे एक भाग प्रमाण होते हैं और सूक्ष्म पर्याप्त जीव संख्यात बहुभाग प्रमाण होते हैं। भावार्थ-एकेन्द्रिय जीवोंकी राशिमें असंख्यात लोकका भाग देनेसे लब्ध एक भाग प्रमाण सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक पृथिवीकायिक आदि जीयोंका परिमाण होता है। गोम्मटसारमें जीवोंकी जो संख्या बतलाई है वह इस प्रकार है-साढ़े तीन बार लोकराशिको परस्परमें गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उतना तेजस्कायिक
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१ म जाणि। २0 मसतिरिक्खाण। ३8 मसग एगो मागो दह ४ संखया।