SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -१५४] १०. लोकानुप्रेक्षा [छाया-मनुजात नैरयिकाः नैरयिकात असंख्यगुणगुणिताः । सर्वे भवन्ति देवाः प्रत्येकानस्पतयः ततः ॥] मशुवादो सामान्यमनुष्यराशितः सूच्यकुलप्रथमतृवीयमूलभकश्रेणिमात्रात् । गेरड्या नारकाः असंख्यातगुणाः घनाकुल द्विवीयमूलजगच्छ्रेणिमात्रा-२ मू। ततो नारकराशितः सर्वदेवा असंख्यातगुणाः दा६५%, 1/1/4/1 ततः असंख्यातगुणाः = ॥ १५३ ॥ पंचक्खा बरक्सा लजियपुण्णो तहेव तेयक्खा । धेयक्खा वि य कमसो विसेस-सहिदा हु सब्व-संखाएं ॥ १५४ ॥ [छाया-पक्षाक्षाः 'चतुरक्षाः लमध्यपूर्णाः तथैव यक्षाः । सक्षाः अपि व क्रमशः विशेषसहिताः सात सवसंख्यया ॥] पंचवम्ला लम्भ्यपर्याप्ताः पोन्द्रियास्तिश्वः संख्यातचनागुलभताजगत्प्रतरमात्राः। ततः चतुरिन्दिया लन्थ्यपर्याप्ता विशेषेणाधिकाः । तहेव सौर श्रीन्द्रिया सध्यपर्याप्ता विशेषाधिकाः । ततः वेगाखा द्वीन्द्रिया लम्भ्यपर्याशाः विशेषाधिकाः कमशः क्रमेण सर्वसंख्यया ॥ १५४ ॥ विवक्षित गुणस्थान या मार्गणास्थानको जब तक प्राप्त न हो उतने कालको अन्तर काल कहते हैं । सो नाना जीयोंकी अपेक्षा उपशम सम्यादृष्टि जीवोंका अन्तरकाल सात दिन है । अर्थात् तीनों लोकोमें कोई जीव उपशम सम्यक्त्वी न हो तो अधिकसे अधिक सात दिन तक नहीं होगा, उसके बाद कोई अवश्य उपशम सम्यक्त्वी होगा। इसी तरह सबका अन्तर समझना चाहिये । सूक्ष्म साम्पराय संयमका अन्तरकाल छ: महिना है । छः महिनेके बाद कोई न कोई जीव सूक्ष्म साम्पराय संयमी अवश्य होगा । आहारक और आहारक मिश्रकाययोगका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । तीन से ऊपर और नौसे नीचेकी संख्याको पृथक्त्व कहते हैं । सो इन दोनोका अन्तर तीन वर्षसे अधिक और नौ वर्षसे कम है । इतने कालके बाद कोई आहारककाययोगी अवश्य होगा । वैक्रियिक मिश्र काययोगका उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है। बारह मुहूर्तके बाद देवों और नारकियोंमें कोई जीव अवश्य जन्म लेगा । तथा लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सासादन गुणस्थानवर्ती और मिन गुणस्थानवी जीव, हन तीनोंमेंसे प्रत्येकका अन्तर पल्पके असंख्यातवें भाग है | यह आठ सान्तर मार्गणा हैं । इनका जघन्य अन्तर एक समय है ॥ तथा प्रथमोपशमसम्यक्त्व सहित पंचमगुणस्थानवी जीवका अन्तर काल चौदह दिन है । और प्रथमोपशम सम्यक्त्व सहित महावतीका अन्तरकाल पन्द्रह दिन है। और दूसरे सिद्धान्तकी अपेक्षा चौबीस दिन है। इस तरह नाना जीवोंकी अपेक्षा यह अन्तर कहा है। इन मार्गणाओंका एक जीत्रकी अपेक्षा अन्तर अन्य प्रन्थोंसे जानलेना चाहिये । अन्तरका कथन समाप्त हुआ ॥ १५२ ।। अब जीओंकी संख्याको लेकर अल्पबदुत्व कहते हैं । अर्थ-मनुष्यों से नारकी असंख्यातगुने हैं। नारकियोंसे सब देव असंख्यात गुने हैं । देवोंसे प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव असंख्यात गुने हैं ॥ भावार्थ-सूष्यंगुलके प्रयम और तृतीय वर्गमूलसे भाजित जगतश्रेणि प्रमाण तो सामान्य मनुष्यराशि है । सामान्य मनुष्पराशिसे असंख्यात गुने नारकी हैं । नारकियोंकी राशिसे सब देव असंख्यात गुने हैं और सब देवोंसे प्रत्येक वनस्पति जीव असंख्यात गुने हैं ॥ १५३ ।। अर्थ-पत्रेन्द्रिय, चौइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और दोइन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीव संख्याकी अपेक्षा कमसे विशेष अधिक हैं । भावार्थ-लब्ध्यपर्याप्तक पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च संख्यात धनांगुलसे भाजित जगत १.दिमपुण्णा तहेय। २. विसेसिसवदा, ग विसेसहिदा। इस संक्वाय, म सबजए । मासिक. १२
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy