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________________ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा० १५२देवा वि णारया वि य लद्धियपुण्णा हु संतरी होति । सम्मुच्छियां वि मणुया सेसा सच्चे णिरंतरया ॥ १५२।। [छाया-देशः अपि नारकाः अपि च लभ्यपूर्णाः खच सान्तराः भवन्ति । संछिताः अपि मनुजाः शेषाः सर्व निरन्तरकाः ॥j देवा ध य देवाः, आप पुनः, ना(का: अपि च, अपिशब्दात् देवानां नारकाणां च उत्पनिमर. णान्तरं लभ्यते। चतुर्णिकायदेवानां सप्लनरके नारकाणां च गोम्मटसारादौ अन्तरप्रतिपादनात्।हु स्फुटम् । लमध्यपर्याप्ताः सन्मूछनमनुष्याः पत्यासंख्यभागमात्रान्तरमुत्कृटन, शेषाः एकेन्द्रियादयः सर्वे निरन्तराः अन्तररहिताः । तथा गोम्मटसारे गायत्रयेग प्रोक्तं च । "उवसमसुहुमाहारे वेगुब्वियमिस्सणरअपजते। सासणसम्मे मिस्से सांतरगा मम्गणा अद्व । सत्तदिगा इम्मामा बासपुतं च पारस मुहुत्ता। पावसंखं तिह परमपरं एकसमओ दु ॥"(लोके नानाजीवापेक्षया विषक्षितगुणस्थानं मागणास्थानं वा त्यक्त्वा गुणान्तरे गाठणास्थानान्तरे बा गत्वा पुनर्यावत्तद्विवक्षितगुणस्थानं मागगास्थान वा नायाति तावान् कालः अन्तरं नाम तिवोत्कृष्टेनौपशमिकसम्यग्दृष्टीनां सप्तदिनानि । तदनन्तर कमिन् स्यादेखः । सूक्ष्मपरायसंयाममा पामासाः ६ । आहारकतन्मिश्राययोगिनां वर्षपृथक्वं ४॥ त्रितयादुपरि मवादयः पृथक्वमिवागमसंज्ञा) क्रियिकमिश्रकाययोगिनां द्वादशमुहतोः । लम्पपर्यासकमनुष्याणां सासादनसम्बमष्टोमा सम्यग्मियादधाना स प्रत्येक पत्यासंख्यासमभागमात्रम् । उप. दि. ७ । सूक्ष्माप- मास ६ । वैक्रियिक मिथ मुहु. १२ पर अ. ५/३। सासादन प/ मिश्र प/a। एवं सान्तरमार्गणा अष्टौ तासां अपन्येनान्तरभेरुसमन एव ज्ञातव्यः । “पटमुवसमसहिद ए विरदायिरदीए चोदसा दिवसा । घिरीए पण्णरसा विरहिदकालो दु पोटुम्यो ।” यिरहकाल: उत्कृटनान्तर प्रथमोपशमसम्यक्त्वराहितायाः विरताविरते. अणुव्रतस्य चतुर्दश दिनानि १४।। तस्प्रथमोपशमसम्यक्त्वसहितविरसमहावतस्य पच्दश दिनानि १५तु पुनः, द्वितीयसिद्धान्तापेक्षया चतुर्विशतिदिनानि २४ । इदम् उपलक्षणम् इत्येकजीवापेक्षया युतमार्गणानामन्तरे प्रवचनानुसारेण बोद्धव्यम् ॥ अन्तरं गतम् ॥ १५२ ।। मणुयादो रइया णेरइयादो असंख-गुण-णियों। सम्वे हवंति देवा पस्तेय-यणप्फदी' तत्तो ॥१५३ ॥ कोडाकोड़ाकोड़ी, इक्यावन लाख बयालीस हजार छसौ तेतालीस कोडाकोड़ी सैंतीस लाख उनसठ हजार तीन सौ चौवन कोड़ी, उनतालीस लाख पचास हजार तीन सौ छतीस, इतनी पर्याप्त मनुष्योंकी संख्या जाननी चाहिये । तथा पर्याप्त मनुष्यों की इस संख्याके चार भाग करो । उसमेंसे तीन भाग प्रमाण मनुष्यणी हैं। और सामान्य मनुष्य राशिमेंसे पर्याप्त मनुष्यों की संख्याको घटानेसे जो शेष रहे उतना अपयोप्स मनुष्योंका प्रमाण है । इस प्रकार गोम्मटसारमें भी मनुष्योंका प्रमाण कहा है। संख्याका वर्णन समाप्त दुआ ॥ १५१ ॥ अब सान्तरमार्गणा बतलाते हैं । अर्थ-देव नारकी, और लब्ध्यपर्याप्तक सामूर्छन मनुष्य, ये तो सान्तर अर्थात् अन्तर सहित हैं। और बाकीके सब जीव निरन्तर हैं। भावार्थ-देवों और नारकियोंमें जन्म और मरणका अन्तरकाल पाया जाता है, क्यों कि गोम्मटसार वगैरह ग्रन्धोंमें चार प्रकारके देवोंका और सातवें नरक में नारकियोंका अन्तर काल कहा है । सम्मूठन जन्मत्राले लन्थ्य, पर्याप्तक मनुष्योंका उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है। बाकीके एकेन्द्रिय आदि सब जीव अन्तर रहित हैं, वे.सदा पाये जाते हैं । गोम्मटसारमें तीन गाथाओंके द्वारा सान्तर मार्गणाओंका कथन किया है। यह कथन नाना जीवोंकी अपेक्षासे है । विवक्षित गुणस्थान अथवा मार्गणास्थानको छोड़कर अन्य किसी गुणस्थान अथवा मार्गणास्थानकों चला जाये और उस १मसग सांतरा। २ग समुधिया। ३. अंतरमणुयादी इत्यादि। ४स गुणिदा। ५ग वणपदी।
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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