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________________ -२०६] १०. लोकायुप्रेक्षा मालाविपक्षफियुक्तः त्रयोविंशतिवर्गणाभिरनेकशरीरादिकार्यकरणशक्तियुक्तः । तेषां पुत्रलाना मत्व पादरवं च व्यमिति चेत् । "धुब्वी जलं च छाया च दियविसयकम्मपरमाणू । छम्बिहमेयं भणियं पोग्गलव जिणवरेहि ॥" · पृथ्वी १ २ छाया ३ चक्षुर्वर्जितशेषचतुरिन्द्रियविषयः ४ कम ५ परमाणुश्च ६ इति पुरलद्रव्य षोडा जिनघरैमणि तम् । "पावरवादर १ भावर १ बादरमहुम ३ च सूहुमथूल ४ च । सुहुम च ५ सुहुमसृहुमं ६ घरादियं होदि छामेवं ।।" पृथ्वीकपद्रलय बादरवादरम्, छेतु भेत्तुमन्यत्र नेतुं शक्म तदादरवादरमित्यर्थः १। जलै बादरम्, यच्छतुं अनुमशक्यमन्मत्र नेतुं शक्य तद्वादरमित्यर्थः २। छाया पावरसूक्ष्मम् , यच्छतु मेस्तुम् अन्यत्र नेतुम् अशक्य तद्वादरसूक्ष्म मित्यर्थः । यश्चक्षुर्वर्जितचतुरिन्द्रिय विषयो माह्यावसूक्ष्मस्थूलम् ४ । कर्म सूक्ष्म, यष्य देशावधि उसे बादर बादर कहते हैं । जल बादर है; क्योंकि जो छेदा भेदा तो न जासके किन्तु एक जगहसे दूसरी जगर के जाया जा सके यो मार कहते हैं। छाया बादर सूक्ष्म हैं; क्यों कि जो न छेदा भेदा जासके और न एक जगह से दूसरी जगह लेजाया जा सके, उसे बादर सूक्ष्म कहते हैं । चक्षुके सिवा शेष इन्द्रियोंका विषय जो बाह्म द्रव्य है जैसे, गन्त्र, रस, स्पर्श और शब्द ये सूक्ष्मबादर हैं । कर्म सूक्ष्म हैं; क्योंकि जो द्रव्य देशावधि और परमावधिका विषय होता है वह सूक्ष्म है । और परमाणु सूक्ष्म सूक्ष्म है; क्यों कि वह सर्वावधि ज्ञानका विषय है ।" और मी कहा है-"जो सब तरहसे पूर्ण होता है उस पुद्गलको स्कन्ध कहते हैं । स्कन्धके आधे भागको देश कहते है और उस आधेके भी आधे भरगको प्रदेश कहते हैं। तथा जिसका दूसरा भाग न होसके उसे परमाणु कहते हैं । अर्थात् जो आदि और अन्त विभागसे रहित हो, यानी निरंश हो, स्कन्धका उपादान कारणहो यानी जिसके मेलसे स्वन्ध बनता हो और जो इन्द्रिय गोचर न हो उस अखण्ड अविभागी द्रव्यको परमाणु कहते हैं । आचार्य नेमिचन्द्र वगैरहने पुद्गल द्रन्यकी विभाव व्यंजनपर्याप अर्थात् विकार इस प्रकार कहे हैं-"शब्द, बन्ध, सौम्य, स्थौल्य, संस्थान, मेद, तम, छाया, मातप और उद्योत ये पुद्गलद्रव्यकी पर्याये है।" इन पर्यायोंका विस्तृत वर्णन करते हैं। शब्दके दो मेद हे-भाषात्मक और अभाषात्मक । भाषात्मक शब्दके भी दो मेद हैं-अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक। संसात भाषा, प्राकृतभाषा, अपभ्रंश भाषा, पैशाचिक भाषा आदिके मैदसे अक्षरात्मक शब्द अनेक प्रकारका है, जो आर्य और म्लेच्छ मनुष्योंके व्यवहारमें सहायक होता है। दो इन्द्रिय आदि तिर्यश्च जीवोंमें तथा सर्वज्ञकी दिव्यध्वनिमें अनक्षरात्मक भाषाका व्यवहार होता है । अभाषामक शब्द भी मायोगिक और वैनसिकके मेदसे दो प्रकारका है । जो शब्द पुरुषके प्रयन करनेपर उत्पन्न होता है उसे प्रायोगिक कहते हैं। उसके चार भेद हैं-तत, वितत, घन और सुषिर । वीणा वगैरहके शब्दको तत कहते हैं । ढोल वगैरहके शब्दको वितत कहते हैं । कसिके बाजेके शब्दको घन कहते हैं। और बांसुरी वगैरहके शब्दको सुषिर कहते हैं । जो शब्द खभावसे ही होता है उसे वैनसिक कहते हैं । जिग्ध और रूक्ष गुणके निमित्तसे जो बिजली, मेघ, इन्द्रधनुष आदि बन जाते हैं, उनके शब्दको वैवसिक कहते हैं जो अनेक प्रकारका होता है । इस प्रकार शब्द पुद्गलका ही विकार है । अब बन्धको कहते हैं । मिट्टीके पिण्ड' आदि रूपसे जो अनेक प्रकारका बन्ध होता है वह केवल पुद्गल पुगलका बन्ध है । कर्म और नोकर्मरूपसे जो जीव और पुद्गलका संयोगरूप बन्ध होता है वह ब्रम्पबन्ध है और रागद्वेष आदि रूपसे भावबन्ध होता है । बेर वगैरहकी अपेक्षा बेल वगैरह
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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