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स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
[ गा० २०५
वर्तते। जीवद्रव्यस्य तु चेतनत्वं सर्ववस्तुप्रकाशकरषम् उपयोगलक्षणत्वं च वर्त्तते । अत एव जीवद्रव्यमुत्तमं जानीहि । तत्वानां सर्वतवानांमध्ये परमतत्वं जीवं जानीहि । ॥ २०४ ॥ जीवस्यैवोत्तमद्रव्यत्वपरमत्वं कथमिति चेदाह - अंतर-तचं जीवो बाहिर - तचं हवंति सेसाणि ।
णाण-विहीणं दव्वं हियाहियं' णेये जाणेदि ॥ २०५ ॥
[छाया - अन्तस्तवं जीवः बाह्यतत्त्वं भवन्ति शेषाणि । शानविहीनं भ्यं हिताहितं नैष जानाति ॥ ] जीव आत्मा अंतरतां अन्ततश्वम् आभ्यन्तरतत्त्वम् । शेषाणि तत्त्वानि भजीरावबन्धादीनि पुत्रमित्रकलत्रशरीर गृहादिखेतनाचेतनादीनि च बाहिर बाह्यतत्त्वं भवति । जीव एवं अन्तस्तस्वम् । कुतः । यतः शेषद्रव्याणामचेतनत्यम् । ज्ञानेन विहीनं द्रव्यं पुद्रलधर्माधर्माकाशकालरूपं इव्यं हिताहितं देयोपादेयं पुण्यं पापं सुखदुःखादिकं नैव जानाति । शेषाणां तु अज्ञस्वभावात्, जीवस्य ज्ञस्वमाचात् सर्वोत्तमत्त्वम् । परमात्मप्रकाशे प्रोतं च । “अं णियदम्ब मिष्णु जहु तं परदम्बु त्रियाणि । पोरल धम्मम्म गहु काल वि पंचमु जाणि ॥” इति ॥ २०५ ॥ जीवणिरून जीवद्रव्यस्य निरूपणं समाप्तम् ॥ अथ पुगलद्रव्य स्वरूप गाथाषट्रेन विवृणोति
सव्वो लोयायासो पुग्गल - दव्वेहिं सव्वदो भरिदो ।
सुमेहिं नायरेहि य णाणा - विह सत्ति - जुत्तेहिं ॥ २०६ ॥
[ छाया - सर्वः लोकाकाशः पुजलदम्यैः सर्वतः मृतः । सूक्ष्मेः बादरैः च नाना विषशक्तियुक्तैः ॥ ] सर्वैः जगच्छ्रेणिधनप्रमाणः लोकाकाशः पुद्रलद्रव्यैः सर्वतः मृतः । कीदृक्षैः । पुङ्गलद्रव्यैः सूक्ष्मैः बादरैः स्थूलैः । पुनः कीदृक्षैः ।
अचेतन हैं किन्तु जीवद्रव्य चेतन है, वह वस्तुओंका प्रकाशक अर्थात् जानने देखनेवाला है; क्योंकि उसका लक्षण उपयोग है । इसीसे जीवद्रव्य ही सर्वोत्तम है। तथा जीव ही सब तत्त्वोंमें परमतत्त्व है ॥ २०४ ॥ आगे कहते हैं कि जीव ही उत्तम और परमतत्व क्यों हैं ! अर्थ-जीब ही अन्तस्तव है, बाकी सब बाह्य तत्त्व हैं । वे बाह्यतस्य ज्ञानसे रहित हैं अतः वे हित अहितको नहीं जानते ।। भावार्थआत्मा अभ्यन्तर तत्त्व है बाकीके अजीव, आस्रव, बन्ध वगैरह पुत्र, मित्र, स्त्री, शरीर, मकान आदि चेतन और अचेतन द्रव्य बाह्य तत्त्व हैं। एक जीव ही ज्ञानवान् है बाकी सब द्रव्य अचेतन होने के कारण ज्ञानसे शून्य हैं । पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और कालद्रव्य हित अहित, हेय, उपादेय, पुण्य पाप, सुख दुःख वगैरह को नहीं जानते। अतः शेष सब द्रव्योंके अज्ञस्वभाव होनेसे और जीवके ज्ञानस्वभाव होनेसे जीव ही उत्तम है। परमात्मप्रकाशमें कहा भी है- 'जो आत्म पदार्थसे जुदा जड पदार्थ है, उसे परद्रव्य जानो । और पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और पाँचवाँ कालद्रव्य ये सब परद्रव्य जानो । जीवद्रव्यका निरूपण समाप्त हुआ || २०५ || अब छः गाथाओंके द्वारा पुद्गल द्रव्यका स्वरूप कहते हैं । अर्थ-अनेक प्रकारकी शक्ति से सहित सूक्ष्म और बादर पुद्गल द्रव्योंसे समस्त लोकाकाश पूरी तरह भरा हुआ है । भावार्थ - यह लोकाकाश जगतश्रेणिके, घनरूप अर्थात् ३४३ राजु प्रमाण है । सो यह पूराका पूरा लोकाकाश शरीर आदि अनेक कार्य करनेकी शक्ति से युक्त तेईस प्रकारकी वर्गणा रूप पुङ्गलद्रव्योंसे, जो सूक्ष्म भी हैं और स्थूल भी हैं, भरा हुआ है । उन पुतलोंके सूक्ष्म और बादर भेद इस प्रकार कहे हैं- "जिनवर देवने पुद्गल द्रव्यके छः भेद बतलाये हैं- पृथ्वी, जल, छाया, चक्षुके सिवा शेष चार इन्द्रियोंका विषय, कर्म और परमाणु । इनमेंसे पृथ्वीरूप पुद्गल द्रव्य बादर बादर है; क्योंकि जो छेदा भेदा जा सके तथा एक जगहसे दूसरी जगह ले जाया जा सके
१ क स ग हेमा
२ व शेव । ३ व जीवणिरुवणं । सो इत्यादि । ४ ब भरिओ ।
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