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________________ raafर्पणी प्रथम कालके आदिमें तथा छठे कालके अन्तमें मनुष्योंके शरीरकी ऊंचाई एकेन्द्रिय आदि जीवों के शरीर की जघन्य अवगाहनाका प्रमाण ११२ - ११४ जीव शरीरप्रमाण भी हैं और सर्वगत भी है । समुद्धात और उसके भेदोंका स्वरूप जीवके सर्वव्यापी होनेका निषेध जीव ज्ञानस्वभाव है, ज्ञानसे भिन्न नहीं है। 23 १२० ज्ञानको जीवसे सर्वथा भिन्न माननेपर गुणगुणी भाव नहीं बनता । जीव और ज्ञानमें गुणगुणी भावसे भेद है । ११९ ज्ञान भूतोंका विकार नहीं है । जीवको न माननेवाले चार्वाकको दूषण atar सद्भाव युक्ति जीब शरीरमें रहता है इससे दोनोंको लोग एक समझ लेते हैं; किन्तु शरीरसे मिला होनेपर भी जीव ही जानता देखता है । जीव और शरीरमें अभेद माननेका भ्रम जीव कर्ता है भोछा है । जीव पुण्य और पापरूप है । जीव तीर्थ है। विषय सूची पृष्ठ जीवके तीन भेद तथा परमात्मा के दो भेद बहिरात्माका स्वरूप अन्तरात्माका स्वरूप तथा उसके भेद ११५ ११६ ११७ ११८ 53 १२१ १२२ १२३ १२४-१२५ १२६ १२७ १२८ १२२ १२९ १३० 35 उत्कृष्ट अन्तरात्मा तथा उसके भेद : मध्यम अन्तरात्मा जघन्य " परमात्मा का स्वरूप 'पर' शब्दकी व्याख्या जीवको अनादि शुद्ध माननेमें दोष सब जीव कर्मबन्धनको काटकर ही शुद्ध होते हैं। "3 19 बन्धका स्वरूप सब द्रव्यों में जोब ही परमतत्त्व है । जीव अन्तस्तस्य है, शेष सब बाह्यतत्त्व है । यह लोकाकाश पुतलोंसे भरा हुआ है। पुद्रलोंके भेद प्रभेद रूप पुद्रलका स्वरूप पुलका जीवके प्रति उपकार जीवका जीवके प्रति उपकार पुल द्रव्यकी महती शक्ति धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यका उपकार आकाशका स्वरूप और उसके दो भेद सभी द्रव्योंमें अवगाहन शक्ति है। यदि शक्ति न होती तो एक प्रदेशमें सब द्रव्य कैसे रहते । काल द्रव्यका स्वरूप द्रव्यों में परिणमन करनेकी स्वाभाविक शक्ति है । सभी द्रव्य परस्परसें एक दूसरेके सहायक होते हैं । द्रव्योंकी शक्तियों का निषेध कौन कर सकता है। कयवहार कालका स्वरूप 93 पृष्ठ १३१ १३२ 1" १३३ १३४ १३५ १३६ "" १३७ १३८ " १३९ १४१ १४२ १४४ १४५ १४६ १४७ १४८ १४९ 23 १५० १५१ १५२ "
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
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