SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 461
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२. धर्मानुप्रेक्षा [या- पर्शनशानचारित्रे सुषिशुद्धः यः भवति परिणामः ३ द्वादशमेदे अपि तपसि स एव विनयः भवेत् सेषाम् । सेसि तेषां दर्शमशामचारित्रतपसा सम्यादर्शनशानचारित्रतपसो स एष विनयो भवेत् 1 स कः । यः सुविशुद्ध: अतिशयेग निर्मला सवाहकपरिणामो वा परिणामः परिणतिः भावो भवति । केषु । दर्शनशानचारित्रेषु मेदामेदरसत्रयरूपसम्यग्दर्शनहानमारित्रेषु, दर्शने तस्वार्थश्रद्धामलक्षणे निश्चयम्यवाहारसम्यक्त्वे निःशरितादिदोषरहित खम्वरूपशुद्ध बुद्धकारमनि श्रद्धानरुचिलक्षणं वा वर्शनविनयः 11शाने द्वादशाशलक्षणे व्यजनोर्जितादिना पठन पाठनं वा चिदानन्देक खस्वल्पपरिज्ञाने वा ज्ञानविनयः ।। बारित्रे त्रयोदशप्रकारे सर्वातिचाररहित्येन पञ्चपञ्चभावनायुक्तत्वेन वा)प्रतिः का खखरूपानुभवनं या चारित्रविनयः ३ । अपि पुनः वादशमेदे तपसि अनशनादिद्वादशमेदभिकतपोविधानेषु असेदेन प्रवृत्तिः, तदाचरणे उत्साहः, आहारेन्द्रियकवायाणा रागद्वेषयोश्च परित्यागः इच्यावितपोदिनयः ॥ ४५ ॥ रयण-तय-जुसाणं अणुकूलं जो बरेदि भत्तीए । भियो जहरायाणं उवयारो सो हवे विणओ ॥ ४५८ ॥ छाया- रात्रययुक्तानाम् अनुकूल यः चरति मत्या। मृत्यः यथा राजाम, उपचारः स भवेत विनयः ॥ ] यो भन्दः रत्नत्रययुकानां सम्यग्दर्शनशानबारित्रवताम् भाचार्योपाध्यायसाधूनां दीक्षाशिक्षाश्रुतदानगुरूणां च मसया धर्मानुराण परमार्यपुग्या अनुकूलम् अभ्युत्थानमभिगमन करयोस्न वन्दनानुगमनं पृष्टगमनम् इत्यादिकम् आचरति, भानुकूल्येम तया पंच परमेष्ठीमें भविमा , उईके गुगविः अनुसरण पाना, ये सब दर्शनविनय है। कहा भी है-'उपग्रहन आदि तथा मक्ति आदि आत्मगुणोंका होना और शंका आदि दोषोंको छोड़ना संक्षेपसे दर्शनविनय है ।' काल शुद्धिका विचार करके जिन भगवान के द्वारा कहे हुए बारह अंग और चौदह पूर्वरूप सिद्धान्तका पड़ना, व्याख्यान करना, पाठ करना, हाथ पैर धोकर पर्षहासनसे बैठकर उसका ममन करना ज्ञान विनय है । ज्ञान विनयके आठ प्रकार हैं-योग्यकालमें साभ्याय करना, श्रुतमक्ति करना, खाध्याय कालतक विशेष नियम धारण करना, आदरपूर्वक व यन करना, गुरुके नामको न छिपाना, दोषरहित पदना, शुद्ध अर्थ करना, शुद्ध अर्थ और शुद्ध शब्द पाना, ये क्रमशः काल विमय, उपधान, बहुमान, अनिचव, व्यंजन, अर्थ और तदुभय नामक आठ प्रकार हैं। इसी प्रकार व्रत, सनिति और गुप्तिरूप तेरह प्रकारके चारित्रका अथवा सामायिक आदिके मेदसे पाँच प्रकारके चारित्रका पालन करना, इन्द्रिय और कपायोंके व्यापारको रोकना अथवा अपने खरुपका अनभवन करना चारित्रविनय है। अनशन, अवमोदय आदि बारह प्रकार के तपका उत्साह पूर्वक पालन करना, तथा आतापन आदि उत्तरगुणों में उत्साहका होना, समता, खब, बन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग इन छ: आवश्यकोंमें कभी भी हानि नहीं करना, (जिस आवश्यकके जितने कायोत्सर्ग बतलाये हैं उतने ही करने चाहिये उनमें घटाबढी नहीं करनी चाहिये) इस प्रकार बारह प्रकारके तपके अनुष्ठान तथा तपखियोंमें भक्तिका होना तपकी विनय है ॥ ४५७ ।। अर्थ-जैसे सेक्क राजाके अनुकूल प्रवृत्ति करता है वैसे ही रात्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सभ्यश्चारित्रके धारक मुनियोंके अनुकूल भक्तिपूर्वक प्रवृत्ति करना उपचार विनय है ।। भावार्थ-औपचारिक विनयको उपचार विनय कहते हैं । पहले कहा है कि उपचार विनयके अनेक प्रकार हैं। अपने दीक्षागुरु, विद्यागुरु, तपखी साधुको दूरसे देखते ही खदे होजाना, हाथ जोड़कर या सिर नवाकर नमस्कार करना, उनके सामने जाना, या पीछे पीछे १ घरे। २ ग जित् । - - -
SR No.090248
Book TitleKartikeyanupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumar Swami
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages589
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy